अधूरी प्यास ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
युगों युगों से नारी कोछलता रहा है पुरुष
सिक्कों की झंकार से
कभी कीमती उपहार से
सोने चांदी के गहनों से
कभी मधुर वाणी के वार से ।
सौंपती रही नारी हर बार ,
तन मन अपना कर विश्वास
नारी को प्रसन्न करना
नहीं था सदा पुरुष की चाहत ।
अक्सर किया गया ऐसा
अपना वर्चस्व स्थापित करने को
अपना आधिपत्य
कायम रखने के लिये ।
मुझे पाने के लिये
तुमने भी किया वही सब
हासिल करने के लिये
देने के लिये नहीं
मैंने सर्वस्व समर्पित कर दिया तुम्हें ।
तुम नहीं कर सके ,
खुद को अर्पित कभी भी मुझे
जब भी दिया कुछ तुमने
करवाया उपकार करने का भी
एहसास मुझको और मुझसे
पाते रहे सब कुछ मान कर अपना अधिकार ।
समझा जिसको प्यार का बंधन
और जन्म जन्म का रिश्ता
वो बन गया है एक बोझ आज
मिट गई मेरी पहचान
खो गया है मेरा अस्तित्व ।
अब छटपटा रही हूँ मैं
पिंजरे में बंद परिंदे सी
एक मृगतृष्णा था शायद
तुम्हारा प्यार मेरे लिये
है अधूरी प्यास
नारी का जीवन शायद ।
1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया कविता
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