अक्तूबर 10, 2012

POST : 164 सीता का पश्चाताप ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      सीता का पश्चाताप ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

मुझे स्वयं बनना था
एक आदर्श
नारी जाति के लिये ।

प्राप्त कर सकती थी
मैं स्वयं अपनी स्वाधीनता
अधिकार अपने ।

कर नहीं पाता
कभी भी रावण
मेरा हरण ।

मैं स्वयं कर देती
सर्वनाश उस पापी का
मानती हूँ आज मैं
हो गई थी मुझसे भयानक भूल ।

पहचाननी थी
मुझे अपनी शक्ति
मुझे नहीं करनी थी चाहत
सोने का हिरण पाने की ।

मेरे अन्याय सहने से
नारी जगत को मिला
एक गलत सन्देश ।

काश तुलसीदास
लिखे फिर एक नई रामायण
और एक आदर्श बना परस्तुत करे
मेरे चरित्र को
उस युग की भूल का
प्राश्चित हो इस कलयुग में । 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

बहुत ही प्यारी कविता👌👍