सीता का पश्चाताप ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
मुझे स्वयं बनना थाएक आदर्श
नारी जाति के लिये ।
प्राप्त कर सकती थी
मैं स्वयं अपनी स्वाधीनता
अधिकार अपने ।
कर नहीं पाता
कभी भी रावण
मेरा हरण ।
मैं स्वयं कर देती
सर्वनाश उस पापी का
मानती हूँ आज मैं
हो गई थी मुझसे भयानक भूल ।
पहचाननी थी
मुझे अपनी शक्ति
मुझे नहीं करनी थी चाहत
सोने का हिरण पाने की ।
मेरे अन्याय सहने से
नारी जगत को मिला
एक गलत सन्देश ।
काश तुलसीदास
लिखे फिर एक नई रामायण
और एक आदर्श बना परस्तुत करे
मेरे चरित्र को
उस युग की भूल का
प्राश्चित हो इस कलयुग में ।
1 टिप्पणी:
बहुत ही प्यारी कविता👌👍
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