अक्तूबर 14, 2012

इंसान बेचते हैं , भगवान बेचते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इंसान बेचते हैं , भगवान बेचते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इंसान बेचते है    भगवान बेचते हैं
कुछ लोग चुपके चुपके ईमान बेचते हैं ।

लो हम खरीद लाये इंसानियत वहीं से
हर दिन जहां शराफत शैतान बेचते हैं ।

अपने जिस्म को बेचा  उसने जिस्म की खातिर
कीमत मिली नहीं   पर नादान बेचते है ।

सब जोड़ तोड़ करके सरकार बन गई है
जम्हूरियत में ऐसे फरमान बेचते हैं ।

फूलों की बात करने वाले यहां सभी हैं
लेकिन सजा सजा कर गुलदान बेचते हैं ।

अब लोग खुद ही अपने दुश्मन बने हुए हैं
अपनी ही मौत का खुद सामान बेचते हैं ।

सत्ता का खेल क्या है उनसे मिले तो जाना
लाशें खरीद कर जो , शमशान बेचते हैं ।  
 

 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

बहुत बढ़िया ग़ज़ल👌👍