अक्तूबर 09, 2012

दृष्टि भ्रम ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

दृष्टि भ्र्म ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

शहर में आता है
नया अफसर
जब भी कोई
करता है दावा
नहीं मैं पहले जैसे
अफसरों जैसा ।

पत्रकार वार्ता में
देता है बयान
मैं कर दूंगा दूर
जनता की सब समस्याएं
लगा करेगा
मेरा खुला दरबार
आ सकता है कोई भी
करने फरियाद 
मुझे होगी बेहद ख़ुशी
कर इस शहर वालों की सेवा
उन से पहले भी
हर इक अफसर ने
दिया था बयान यही
दिया करेंगे यही फिर
उनके बाद आने वाले भी ।
 
बदलते रहेंगे अफसरान
रहेगा मगर हमेशा
उनका वही बयान
न बदला कभी
न बदलेगा कभी
प्रशासन और सरकार का बना बयान ।

पढ़ सुन कर उनका बयान
कर उस पर एतबार
कोई चला जाए उनके दरबार
और करे जाकर उनसे
कर्तव्य निभाने की कभी बात 
लगता तब उनको
दे रहा चुनौती कोई सरकार को
सत्ता के उनके अधिकार को
जो न माने उसका उपकार
हो जाती नाराज़ है उससे सरकार ।

कहलाता है जनसेवक
लेकिन शासक होता है शासक
आम है जनता अफसर हैं ख़ास
लाल बत्ती वाली उसकी कार
सुरक्षा कर्मी भी है साथ
है निराली उसकी शान
धरती के लोग जनता
अफसरों के लिए
ऊंचा आसमान ।

लेकिन इक दिन
वो भी आता है
अफसर न अफसर कहलाता है
पद न उसका रह  जाता है
आम नागरिक बन तब
उसको है समझ आता
रहने को केवल धरती है
उड़ते थे जिस आकाश में
नहीं उसका कोई भी अस्तित्व
उसका वो नीला रंग
है मात्र एक दृष्टि भ्रम । 
 

        

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