फूल पत्थर के ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
साहित्य मेंबड़ा है उनका नाम
गरीबों के हमदर्द हैं
कुछ ऐसी बनी हुई
उनकी है पहचान ।
गरीब बेबस शोषित लोग
उनकी रचनाओं के
होते हैं किरदार
मानवता के दर्द की संवेदना
छलकती नज़र आती है
उनके शब्दों से ।
मिले हैं दूर से कई बार उनसे
उनके लिए
बजाई हैं तालियां
आज गये हम उनके घर
उनसे करने को मुलाक़ात ।
देखा जाकर वहां
नया एक चेहरा उनका
उनके घर के कई काम करता है
किसी गरीब का बच्चा छोटा सा ।
खड़ा था सहमा हुआ
उनके सामने कह रहा था
हाथ जोड़ रोते हुए
मेरा नहीं है कसूर
कर दो मुझे माफ़ ।
लेकिन रुक नहीं रहे थे
उनके नफरत भरे बोल
घायल कर रहे थे
उनके अपशब्द एक मासूम को
और मुझे भी
जो सुन रहा था हैरान हो कर ।
डरने लगा था मन मेरा
देख उनके चेहरे पर
क्रूरता के भाव
उतर गया था जैसे उनका मुखौटा ।
वो खुद लगने लगे थे
खलनायक
अपनी ही लिखी कहानी के ।
लौट आया था मैं उलटे पांव
वे वो नहीं थे जिनसे मिलने की
थी मुझे तमन्ना ।
आजकल बिकते हैं बाज़ार में
कुछ खूबसूरत फूल
पत्थर के बने हुए भी
लगते हैं हरदम ताज़ा
पास जाकर छूने से लगता है पता ।
नहीं फूलों सी कोमलता का
उनमें कोई एहसास ।
मुरझाते नहीं
मगर होते हैं संवेदना रहित
खुशबू नहीं बांटते
पत्थर के फूल कभी ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें