नवंबर 04, 2012

POST : 218 स्वीकार करने अपने गुनाह ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

  स्वीकार करने अपने गुनाह ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

स्वीकार करने हैं
सभी अपने गुनाह
तलाश करता हूं
ऐसी इक इबादतगाह ।

मेरी ज़ुबां से सुने
मेरी ही दास्तां
बन कर के पादरी
जहां पर खुद खुदा ।

मंज़ूर है मुझको
हर इक कज़ा
मांग लूंगा मैं अपने
सब जुर्मों की सज़ा ।

पूछना है लेकिन
इक सवाल भी मुझे
मिलता क्या है
हमें रुला के तुझे ।

तेरे ही बंदे
क्यों इतने परेशान हैं
हम सभी देख कर हैरान हैं
मंदिर सब तेरे बने आलीशान हैं
फिर किसलिये बेघर इतने इंसान हैं ।

बना कर ये दुनिया
कहां खो गया है
देख खोल कर आंखें
क्या सो गया है । 
 

 

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