हक़ तो जीने का नहीं है कोई ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
हक़ तो जीने का नहीं है कोईफिर भी जीता ही कहीं है कोई ।
आह भरना भी जहां होता गुनाह
रोया जा-के वहीं है कोई ।
मौत की मिलके दुआएं मांगें
अब इलाज इसका नहीं है कोई ।
आएगा वो मेरी मैयत पे ज़रूर
कब कहीं आता युं हीं है कोई ।
किसको ढूंढे है नज़र , सहरा में
मिलता कब "तनहा" कहीं है कोई ।
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