कहानी ज़ख़्मों की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
बार बार लिखता रहाहर बार मिटाता रहा
कहानी अपने जीवन की।
अच्छा है यही
रह जाये अनकही
सदा कहानी मेरे जीवन की।
हो न जाये कोई उदास
सुनकर मेरी कहानी
जीवन में सभी को होती है
किसी न किसी से कोई आस।
सुनकर मेरी दास्तां
टूट न जाये
कहीं किसी की कोई उम्मीद।
कैसे खड़ा करूँ कटघरे में
सभी अपनों को बेगानों को
कैसे कह दूं मिल सका नहीं
कोई भी इस पूरी दुनिया में मुझे।
कैसे कर लूँ मैं स्वीकार
कैसे जीते जी मान लूँ
अपनी तलाश की
मैं अभी भी हार।
सुनाऊँ अपनी कहानी
मिल जाये अगर कहीं अपना कोई
आंसुओं से भिगो दूँ उसका दामन
रोये वो भी साथ मेरे देर तक।
हो जाये मेरे हर दुःख दर्द
और अकेलेपन का अंत।
मगर लिखी जाती नहीं
उस फूल की कहानी
जिसको मसल डाला
खुद माली ने।
कहानी उस पत्थर की
लगाते रहे जिसको
ठोकर सभी लोग।
नहीं लिखी जाती
उन सपनों की कहानी
बिखरते रहे हर सुबह जो
उन रातों की कहानी
जिनमें हुई न कभी चांदनी।
उन सुबहों की क्या लिखूं कहानी ,
मिटा पाया न जिनका सूरज
मेरे जीवन से अँधेरा।
काँटों के दर्द भरे शब्दों से
मुझे नहीं लिखनी है
किसी किताब के पन्ने पर
अपने ज़ख्मों की कहानी।
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