नवंबर 11, 2012

काश ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      काश ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया 

चले जाते हैं हम लोग
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे गिरजा घर।

करते हैं पूजा अर्चना 
सुन लेते हैं बातें धर्मों  की
झुका कर अपना सर।

और मान लेते हैं
कि खुश  हो गया है ईश्वर
हमारे स्तुतिगान से।

मगर कभी जब कहीं
कोई देता है दिखाई हमें 
दुःख में निराशा में
घबरा कर आंसू बहाता हुआ।

तब हम चुरा लेते हैं नज़रें
और गुज़र जाते हैं
कुछ दूर हटकर।

हमारी आस्था हमारा धर्म
जगा नहीं पाता हमारे मन में
मानवता के दर्द के एहसास को।

काश
कह पाता  ईश्वर तब हमें
व्यर्थ है हमारा उसके दर पे आना। 

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