काश ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
चले जाते हैं हम लोगमंदिर मस्जिद गुरुद्वारे गिरजाघर ।
करते हैं पूजा अर्चना
सुन लेते हैं बातें धर्मों की
झुका कर अपना सर ।
और मान लेते हैं
कि खुश हो गया है ईश्वर
हमारे स्तुतिगान से ।
मगर कभी जब कहीं
कोई देता है दिखाई हमें
दुःख में निराशा में
घबरा कर आंसू बहाता हुआ ।
तब हम चुरा लेते हैं नज़रें
और गुज़र जाते हैं
कुछ दूर हटकर ।
हमारी आस्था हमारा धर्म
जगा नहीं पाता हमारे मन में
मानवता के दर्द के एहसास को ।
काश
कह पाता ईश्वर तब हमें
व्यर्थ है हमारा उसके दर पे आना ।
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