रास्ते ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
मंज़िल की जिन्हें चाह थीमिल गई
उनको मंज़िल।
मैं वो रास्ता हूं
गुज़रते रहे जिससे हो कर
दुनिया के सभी लोग।
तलाश में अपनी अपनी
मंज़िल की
मैं रुका हुआ हूं
इंतज़ार में प्यार की।
रुकता नहीं
मेरे साथ कोई भी
कुचल कर
गुज़र जाते हैं सब
मंज़िल की तरफ आगे।
सबको भाती हैं
मंज़िलें
बेमतलब लगते हैं रास्ते।
क्या मिल पाती तुम्हें मंज़िलें
न होते जो रास्ते।
रास्तों को पहचान लो
उनका दर्द
कभी तो जान लो।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें