मेरी जान , मेरे दोस्त ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
अक्सर आता है मुझे यादपहला दिन कालेज का
झाड़ियों के पीछे
पत्थरों पर बैठे हुए थे
हम दोनों कालेज के लान में ।
रैगिंग से हो कर परेशान
कितने उदास थे हम
कितने अकेले - अकेले
पहले ही दिन कुछ ही पल में
हम हो गये थे कितने करीब ।
अठारह बरस है अपनी उम्र
आज भी लगता है कभी ऐसे
कितनी यादें हैं अपनी
जो भुलाई नहीं जाती
भूलना चाहते भी नहीं थे
हम कभी ।
पहली बार मुझे
मिला था दोस्त ऐसा
जो जानता था
पहचानता था
मुझे वास्तव में ।
बीत गये वो दिन कब जाने
छूट गया वो
शहर उसका बाज़ार
गलियां उसकी ।
बरसात में भीगते हुए
हमारा कुछ तलाश करना
बाज़ार से तुम्हारे लिये
खो गई सपनों जैसी
प्यारी दुनिया हमारी ।
मगर भूले नहीं हम
कभी वो सपने
जो सजाए थे मिलकर कभी
अचानक तुम चले गए वहां
जहां से आता नहीं लौटकर कोई ।
मुझे नहीं मिला
फिर कोई दोस्त तुम सा
खाली है मेरे जीवन में
इक जगह
रहते हो अब भी तुम वहां ।
आज भी सोचता हूँ
जाकर ढूंढू
उन्हीं रास्तों पर तुम्हें जहां
चलते रहे दोनों यूं ही शामों को
अब कहां मिलते हैं
इस दुनिया में तुझसे दोस्त ।
अब क्या है इस शहर में
इस दुनिया में
बिना तेरे मेरी जान मेरे दोस्त ।
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