मृगतृष्णा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
हम चले जाते हैं उनके पासनिराशा और परेशानी में
सोचकर कि वे कर सकते हैं
जो हो नहीं पाता है
कभी भी हमसे ।
वे जानते हैं वो सब
नहीं जो भी हमें मालूम
तब वे बताते हैं हमें
कुछ दिन महीने वर्ष
रख लो थोड़ा सा धैर्य
सब अच्छा है उसके बाद ।
हमें मिल जाती है
झूठी सी आशा इक
इक तसल्ली सी
सोचकर कि आने वाले हैं
दिन अच्छे हमारे ।
कट जाती है उम्र इसी तरह
झेलते दुःख परेशानियां
और जी लेते हैं हम
आने वाले अच्छे दिनों की
झूठी उम्मीद के सहारे ।
टूटने लगता है जब धैर्य
डगमगाने लगता है विश्वास
फिर चले जाते हैं
हम बार बार उन्हीं के पास ।
ले आते हैं वही झूठा दिलासा
और नहीं कुछ भी उनके पास
उनका यही तो है कारोबार
झूठी उम्मीदों
दिलासों का ।
शायद होती है
इस की ज़रूरत हमें
जीने के लिये जब
निराशा भरे जीवन में
नहीं नज़र आती
कोई भी आशा की किरण
जो जगा सके ज़रा सी आशा
झूठी ही सही ।
सच साबित होती नहीं बेशक
उनकी भविष्यवाणियां कभी भी
तब भी चाहते हैं
बनाए रखें उन पर ।
अपना विश्वास
ऐसा है ज़रूरी उनके लिए भी
शायद उससे अधिक हमारे लिये
जीने की आशा के लिए ।
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