गुठलियां नहीं , आम खाओ ( व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया
गुठलियाँ खाना छोड़ करअब आम खाओ
देश के गरीबो
मान भी जाओ।
देश की छवि बिगड़ी
तुम उसे बचाओ
भूख वाले आंकड़े
दुनिया से छुपाओ।
डूबा हुआ क़र्ज़ में
देश भी है सारा
आमदनी नहीं तो
उधार ले कर खाओ।
विदेशी निवेश को
कहीं से भी लाओ
इस गरीबी की
रेखा को बस मिटाओ।
मान कर बात
चार्वाक ऋषि की
क़र्ज़ लेकर सब
घी पिये जाओ।
अब नहीं आता
साफ पानी नल में
मिनरल वाटर पी कर
सब काम चलाओ।
होना न होना
तुम्हारा एक समान
सारे जहां से अच्छा
गीत मिल के गाओ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें