नवंबर 08, 2012

ठंडी ठंडी छाँव ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    ठंडी ठंडी छांव ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

घर के आंगन का वृक्ष हूं मैं
मेरी जड़ें गहराई तक फैली हैं
अपनी माटी में
प्यार से सालों साल सींचा है
माली ने पाला है जतन से
घर को देता हूं छाया मैं।

आये हो घर में तुम अभी अभी
बैठो मेरी शीतल शीतल छांव में
खिले हैं फूल कितने मुझ पर
निहारो उनको प्यार से
तोड़ना मत मसलना नहीं
मेरी शाखों पत्तों कलियों को
लगेंगे फल जब इन पर
घर के लिये  तुम्हारे लिये 
करो उसका अभी इंतज़ार।

काटना मत मुझे कभी भी
जड़ों से मेरी
जी नहीं सकूंगा 
इस ज़मीन को छोड़ कर
मैं कोई मनीप्लांट नहीं
जिसे ले जाओ चुरा कर
और सजा लो किसी नये गमले में।

देखो मुझ पर बना है घौसला
उस नन्हें परिंदे का
उड़ना है उसे भी खुले गगन में
अपने स्वार्थ के पिंजरे में
बंद न करना उसको
रहने दो आज़ाद उसको भी घर में
बंद पिंजरे में उसका चहचहाना
चहचहाना नहीं रह जायेगा
समझ नहीं पाओगे तुम दर्द उसका।

जब भी थक कर कभी
आकर बैठोगे मेरी ठंडी ठंडी छांव में
माँ की लोरी जैसी सुनोगे
इन परिंदों के चहचहाने की आवाज़ों को
और यहां चलती मदमाती हवा में
आ जाएगी तुम्हें मीठी मीठी नींद।

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