नवंबर 01, 2012

POST: 211 अपने ही संग ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

अपने ही संग ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

रुको जानो स्वयं को
किसलिए खो बैठे हो
अस्तित्व अपना
भागते रहोगे कब तक
झूठे सपनों के पीछे तुम ।

देखो ,कोई पुकार रहा है
आज तुम्हें
तुम्हारे ही भीतर से
तलाश करो कौन है वो
मिलेगा तुम्हें नया सवेरा
नई मंज़िल
एक नया क्षितिज
एक किनारा ।

देखो तुम्हारे अंदर है
परिंदा एक जो व्याकुल है
गगन में उड़ने के लिये
स्वयं को स्वतंत्र कर दो
निराशा के इस पिंजरे से
फिर से इक बार करो 
जीने की नई पहल ।

भुला कर दुःख दर्द को
खोलो खुशियों का दरवाज़ा
छुड़ा अपना दामन
परेशानियों से
सजा लो अधरों पर मुस्कान ।

पौंछ कर
अपनी पलकों के आंसू
आरम्भ करो फिर से जीना
अपने ढंग से
अपने ही लिये ।

देखना कोई
होगा हर कदम
साथ साथ तुम्हारे
नज़र आये चाहे  नहीं
करते रहना
उसके करीब होने का
आभास पल पल तुम ।
 

 

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