जीने का अधिकार मिले ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कोई आस्तिक होया हो नास्तिक
ईश्वर के लिये
सभी हों एक समान
होना ही चाहिये
दुनिया का सिर्फ यही विधान ।
नहीं जानता मैं क्या हूं
आस्तिक या कि नास्तिक
शायद नहीं आता मुझको
करना विनती- प्रार्थना
गुलामी करना नहीं भाता मुझे
किसी को गुलाम बनाना
भी नहीं चाहता हूं मैं
हम सब हैं बराबर जब इंसान
किसी का किसी पर
नहीं जब कोई एहसान
क्यों होता है ऐसा फिर भगवान
बेबस ही लगता क्यों
यहां हर इक इंसान ।
चाहता हूं मैं
सिर्फ जीने का अधिकार
कोई किसी का भी भक्त नहीं हो
कोई न हो किसी की सरकार
मिले जीने की पूरी कभी तो आज़ादी
आरज़ू है अभी तक
बाकी यही आधी
सौ साल नहीं
उम्र हो चाहे बस इक साल
ज़िंदगी का पर
न हो बुरा ऐसा तो हाल
जीना है मुझको अपनी मर्ज़ी से
नहीं और जीना
जैसा चाहते हों लोग सारे
मर मर कर ही
अब तक ज़िंदा रहा हूं
कहां एक पल भी जी सका मैं
हद हो चुकी है
ज़ुल्मों सितम की
नहीं भीख भी चाहिये
पर तेरे करम की
क्यों किसी को
अपना मालिक सब मानें
कभी खुद को इंसान
इंसान ही सिर्फ माने
किसी के आदेश से
न हो जीना मरना
अगर कर सको
अब यही बस तुम करना ।
( भगवान बनना मुश्किल बहुत है, नहीं आसां मगर इन्सान भी बनना। कभी तू भी मुझ सा ही बनना। )
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