जुलाई 05, 2024

समझा नहीं जाना नहीं ईश्वर धर्म ( अज्ञानता ) डॉ लोक सेतिया

   समझा नहीं जाना नहीं ईश्वर धर्म ( अज्ञानता ) डॉ लोक सेतिया

ऐसा करने से पुण्य मिलेगा मनोकामनाएं पूर्ण होंगी समस्याएं दूर होंगी आदि आदि , ये तो लाभ हानि की बात हुई ईश्वर भगवान से इस का कोई मतलब ही नहीं है । कहीं जाकर कुछ करने से सभी पाप माफ़ हो जाते हैं क्या ये अच्छे कर्म करने की बात है कि बुरे कर्म पाप करते रहो जब मन में ग्लानि की भावना जागृत हो तो दिल को बहलाने को समझ लो ऐसा किया सब अपराध सारे गुनाह की सज़ा से बच गए । नहीं ऐसा किसी धर्म में नहीं समझाया गया है । ये सब जिन्होंने भी करने को कहा वास्तव में उनको धर्म ईश्वर से कोई मतलब नहीं था उनको किसी तरह से इस को इक कारोबार बनाकर अपना व्यवसाय चलाना था । जब शुरुआत हुई तब ये उनके पेट भरने का ढंग था लेकिन जैसे जैसे लोग स्वार्थी और खुदगर्ज़ बनते गए ये इक बड़ा कारोबार बन गया है । शायद ही संभव हो इसका पूरा गणित समझना लेकिन कोई भी अर्थशास्त्री आपको इतना बता सकता है कि देश में जितना धन धार्मिक आयोजनों पर समागम सत्संग धर्म उपदेश से सभी धर्मों के क्रियाकलाप पर खर्च किया जाता है अगर उतना धन गरीबी भूख और बेबस लोगों की सहायता पर खर्च किया जाता तो देश में कहीं भी कोई बदहाल नहीं दिखाई देता । दीन दुःखियों की सहायता करना वास्तविक धर्म होता है लेकिन हम उनको बड़ी ही हिक़ारत की नज़र से देखते हैं जाने क्या क्या कहते हैं ये लोग कुछ करते नहीं भीख मांगते हैं ।लेकिन हम खुद क्या करते हैं भीख़ भी देते हैं तो बदले में उस से कई गुणा अधिक पाने की कामना रखते हैं । दान धर्म पुण्य कुछ भी हम लोग निस्वार्थ भावना से नहीं करते हैं , शायद कई बार ऐसा भी मन में छुपी किसी आशा से करते हैं कि कोई आशिर्वाद दे कर हमको और धनवान या लोकप्रिय बना दे । 
 
धार्मिक ग्रंथों को पढ़ते ही नहीं समझ कैसे सकते हैं और उन से कोई सबक सीख कर समाज की कोई भलाई करने का कोई प्रयास कैसे किया जा सकता है । हमको खुद अपने आप से फुर्सत ही नहीं जो आस पास समाज को देखें हम आत्मकेंद्रित बनते गए हैं । इतना तो सामने नज़र आता है कि हर तरफ भगवान और धर्म का शोर है तब भी वास्तव में अधर्म और पाप बढ़ते ही जा रहे हैं ख़त्म ही नहीं होते कभी । किसी एक की बात नहीं जितने भी लोग धर्म और ईश्वर के नाम पर धन दौलत हासिल कर खुद को महान कहलवाते हैं लगता नहीं उनको वास्तविक धर्म की स्थापना से कोई सरोकार भी है । तथकथित अनुयाई भी उन लोगों की असलियत को देखना समझना नहीं चाहते क्योंकि इस से उनकी खुद की मूर्खता और अज्ञानता सामने ही नहीं आती बल्कि उन्होंने जितना कुछ किया सब व्यर्थ था इस का भी पर्दाफ़ाश होता है । अज्ञानता मूर्खता पर इक आवरण है ये सब धार्मिक होने का दिखावा जो आपको सोशल मीडिया पर खूब दिखाई देता है हर कोई शायद बिना समझे पढ़े औरों को समझाता है आचरण करना कोई नहीं चाहता । लगता है जैसे इक घना कोहरा छाया हुआ है जिस ने ज्ञान और रौशनी के सूरज को छिपा दिया है और हम आंखों वाले अंधे बनकर उनकी बताई राह पर चलते जा रहे हैं जो खुद अपनी राह से भटके हुए हैं । आपको हैरानी नहीं होती जब आपके सभी गुरु धर्म उपदेशक खुद अपना कोई अभिमत नहीं व्यक्त करते बल्कि इधर उधर से साहित्य से चुराकर या फिर किसी कथा को अपनी सुविधा से बदलकर आपको प्रभावित करने की कोशिश करते हैं । कैसा लगता है जब धार्मिक सतसंग से श्रद्धांजली सभा तक में कोई फ़िल्मी गीत सुना रहा होता है आपको आनंद आता है तो फिर आपकी सोच पर तरस आता है । धर्म और ईश्वर को हमने क्या से क्या बना दिया है ये ऐसी विडंबना है जिस पर चिंतन किया जाना चाहिए अन्यथा परिणाम क्या होगा कौन जाने । 
 
अब थोड़ा सा सोच विचार करते हैं , जिस भी भगवान या परमात्मा ईश्वर ने दुनिया का सब कुछ बनाया होगा , उसको हमसे या किसी से कुछ भी चाहिए क्यों होगा जो सर्वशक्तिमान है उसे रहने पहनने खाने पीने को किसी इंसान जीव जंतु पक्षी जानवर पर आश्रित नहीं होना पड़ेगा । जो जब चाहे उपलब्ध हो जाएगा , रहने को उसे कोई जगह चाहिए तो खुद बन जाएगी आपके बनाए हमारे बनाए किसी भवन में रहना उसकी ज़रूरत होगी न ही विवशता । कौन हैं जिन्होंने उसे किसी मिट्टी पत्थर या अन्य वस्तु से बनाया ही नहीं बल्कि उसे जैसे कैदी बना कर अपने अधीन रख लिया जब चाहे सामने आये जब चाहे बंद कर दिया जाए । भगवान के साथ ये कैसा आचरण हो रहा है । ये दुनिया जिस भगवान ने बनाई कितनी खूबसूरत बनाई थी उसे किसी और जगह जाकर ठिकाना बनाने की चाहत क्यों होगी , लेकिन हम सभी ने उसकी बनाई दुनिया को तहस नहस कर दिया है उसे संवारा नहीं बर्बाद किया है तो हम उसे खुश कैसे कर सकते हैं । भगवान को अपना गुणगान करवाना क्या ज़रूरी लगेगा उसे इसकी आवश्यकता ही नहीं होगी , ये तो आदमी की फ़ितरत है उसे अपने को अच्छा कहलाना पसंद है । भगवान और इंसान में यही सबसे बड़ा फ़र्क है उसको किसी से कुछ भी नहीं चाहिए । अर्थात हमने भगवान और धर्म के नाम पर जो भी किया उसका कोई मकसद ही नहीं समझ आता । 
 
 दुनिया मेरे आगे: केंद्र और परिधि, सीमित दृष्टि में नहीं है जीवन का आनंद,  खुद को बड़ा बनाकर सोच के बंधन से मुक्त होना जरूरी | Jansatta

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

ये करने से ये होगा ये करने से ये....ये सब बाबाओ के चोचले हैं ईश्वर को कुछ लेना देना नही इन सब से। लोग घर में रहकर बुजुर्गों की सेवा नहीं करते वहां बाबाओ की करते हैं