चल उड़ जा रे पंछी ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया
क्या क्या नहीं किया इक अपना आभामंडल बनाने को , धुंवा बना के फ़िज़ा में उड़ा दिया मुझको , मैं जल रहा था किसी ने बुझा दिया मुझको । ग़ज़ल सुनकर सुकून नहीं मिलता मत छेड़ ये तराने , याद आते हैं गुज़रे हुए ज़माने । घौंसला बड़े प्यार से सजाया था हर किसी को दिखाया था , किसी की बुरी नज़र लग गई है , अचानक सब तिनके बिखर गए हैं आशियाना वीरान है पंछी भूला उड़ान है । ऊंची हवेली की बुनियाद कमज़ोर थी इक झौंका हवा का आया और उड़ा कर आकाश में लाया और धूल बनाकर मिट्टी में मिला दिया । किसी ने खरी बात कह दी कि आज तक कोई भी परियोजना समय पर पूरी नहीं हुई , कोई इतना बेपरवाह हो सकता है भला कितना प्यारा ख़्वाब टूट गया हर सपना अधूरा है । कौन समझाए उनकी योजना क्या है उनको जिस जिस परियोजना को भी करना था ऐसी सभी योजनाएं समय पर नहीं निर्धारित वक़्त से पहले पूर्ण हुई हैं । हर चुनाव से पहले उन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया है । इतिहास को बदलने से तोड़ने झुठलाने तक इक अपना आधुनिक इतिहास बनाया है । परों से नहीं हौंसलों से उड़ान होती है दिल का परिंदा है जान है तो जहान है आह भी कभी इक तूफ़ान होती है । आपने खुद को पिंजरे में कैद रखा कभी अपने परों को तोला ही नहीं , सीखा नहीं उड़ना उड़ाना बना बैठे पहाड़ पर अपना ठिकाना जब ज़मीं पर गिरने लगे तब समझे अफ़साना ।
अचानक ऊंट पहाड़ के नीचे आया है हर तरफ बढ़ता हुआ साया देख कर घबराया है । मुझे अपने दोस्त जवाहर लाल ठक्कर जी का शेर याद आया है , इक फूल को छुआ तो सब कागज़ बिखर गए , तुम कह रहे थे मेरा बहारों का शहर है । दिन भर तरसता ही रहा कोई बात तो करे , मुझ को कहां खबर थी इशारों का शहर है । मतलबी यार आपने बनाये आपके रास्ते पर फूल बिछाए देख कर गले लगाकर झूले झूले सावन के गीत गाये अपनी शान पर कितना इतराये जब बुलाया कठिन घड़ी में तो छोड़ गए साथ सभी हमसाये । महफ़िलों में रौनक नहीं है अकेलापन है दिल घबराता है विदेश जाना क्या अपने घर से निकलना छोड़ दिया है । धीरे धीरे मचल ए दिल ए बेकरार कोई आता है , कोई आहट नहीं है उनको इक डरावने ख़्वाब ने जगाया है , माथे पर पसीना आया है आने वाला कोई भी अपना हो चाहे बेगाना हो किसी को नहीं अपने जहां में बसाना है , हर अपना लगता बेगाना है । आपका खेल ख़त्म हुआ बदलने लगा ज़माना है हमने बनाया था जिसे मयखाना साकी किसी और की प्यास बुझाने लगे हैं छलकते जाम थे जिन हाथों में टूटा हुआ पैमाना है । पांव जब कभी लड़खड़ाने लगते हैं ज़िंदगी के मिजाज़ समझ आने लगते हैं मदहोशी में फिर बेवफ़ा की याद आती है दर्द भरे नग्में गुनगुनाने लगते हैं । दुनिया का यही चलन है कुछ भी साथ नहीं लाया कोई कुछ भी साथ नहीं ले जाना है तेरा क्या है मेरा क्या है चार दिन का होता बसेरा क्या है , चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना । नासमझ लोग पिंजरे को अपना आशियाना समझ लेते हैं इक बोध कथा से विषय का अंत करते हैं ।
साधु और पिंजरे में बंद पक्षी ( बोध कथा )
पहाड़ों पर सैर करते इक साधु को घाटी में कहीं दूर से आवाज़ सुनाई दी मुझे
आज़ाद करो । ढूंढते हुए उसको इक पक्षी पिंजरे में बैठा ऐसा कहता मिला । मगर
पिंजरा तो खुला था बंद नहीं फिर भी साधु ने भीतर हाथ डालकर उसको बाहर
निकाला और आसमान में उड़ने को छोड़ दिया । अगली सुबह फिर साधु को वही आवाज़
सुनाई दी और जाकर देखा तो पाया कि पक्षी वापस उसी पिंजरे में चला आया है ।
उसकी आदत बन गई थी आज़ाद होने को कहना मगर खुद ही कैद होकर रहना । अब साधु ने
उस पक्षी को निकाला उड़ाया और फिर उस पिंजरे को उठाकर बहते पानी में गहराई
में फेंक दिया । इस तरह उसके लिए पिंजरा ही नहीं रहा वापस आने को । लेकिन
आजकल जो संत साधु मिलते हैं उनके पास हमारे लिए पिंजरे हैं वो कभी हमें सही
दिशा नहीं समझाने वाले । अपने विवेक से हमने ही अपने आप को स्वार्थ और
खुदगर्ज़ी के पिंजरे से मुक्त करना है । घर बैठे चिंतन कर सकते हैं क्योंकि
जब आपको बाहर नहीं जाना तभी अपने भीतर जाने का समय होता है ।
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