हमको मिलते हैं समाज से ( बात व्यंग्य की ) डॉ लोक सेतिया
सच कहता हूं मैं चाहता हूं हमेशा से आरज़ू रही है ये नामुराद विधा छोड़ कोई ग़ज़ल कोई कविता कोई कभी इक कहानी लिखना । मुश्किल है बहुत मुश्किल तल्ख़ मिज़ाज से छुटकारा पाना , ग़ज़ल के नर्म मुलायम अल्फ़ाज़ कविता के कोमल एहसास कहानी की वो उड़ान जिसकी कोई सीमा नहीं असली मज़ा है उनके साथ जीवन जीना । मगर कैसे किया जाये क्योंकि समाज में हर तरफ फैला हुआ है ऐसा वातावरण जो कितनी ही विडंबनाओं विसंगतियों को दिखाता ही नहीं विचलित करता है चैन नहीं मिलता उसको लिखे बगैर । शायद व्यंग्यकार की विवशता है बेचैनी उसको हंसने मुस्कुराने नहीं देती न ही खुल कर अश्क़ बहाने देती है इस लिए कि रोना चीखना घबराना है हारना है लेखक लड़ना चाहता है हार नहीं मानता तभी विधा का चयन हालात की मर्ज़ी पर निर्भर है । आजकल जिधर देखते हैं सभी जैसे हैं वैसे दुनिया को दिखाई नहीं देना चाहते हैं , किरदार भले आदमी का जीना नहीं चाहते मगर कहलाना महान चाहते हैं ।
किताबी दुनिया में युग युग से नायक और शानदार व्यक्तित्व की परिभाषा स्पष्ट है , खुलापन , कर्तव्यनिष्ठा , बहिर्मुखता , सहमतता , विक्षिप्तता ये पांच प्रमुख गुण कहलाते हैं जो व्यक्ति के व्यवहार सोच और भावनाओं को समझने में मदद करते हैं । याद रखना ये पांच गुण उसी तरह से महत्वपूर्ण है जैसे पांच तत्वों से सृष्टि बनी है , आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी ये पंचमहाभूत कहलाते हैं । व्यक्तित्व किसी व्यक्ति के विचारों को , भावनाओं को और व्यवहार अथवा आचरण को संगठित और स्थिर करता है । यह व्यक्ति के जीवन के अनुभवों वातावरण और सामाजिक प्रभावों से प्रभावित नहीं होने देता है। परीक्षा की घड़ी में अपने मूल्यों को बचाए रखता है तभी कोई व्यक्ति सही मायने में शानदार इंसान समझा जाता है । आपको बोझिलता महसूस होने लगी है ये सब फालतू बातें सुनने की फुर्सत नहीं है चलो बदलते हैं जो आपको पसंद आये कोशिश करते हैं ।
सरकार से लेकर साधारण लोगों तक सभी की ख़्वाहिश है अपनी अलग पहचान बनाई जाए , खुद अपने को सबसे बढ़कर महान दर्शाया जाये । खुद सबसे आगे चलना है सभी को अपने पीछे लगाया जाये , बस इसी कोशिश में होता है कि धीरे धीरे इक इक कर लोग पीछे छूटते जाते हैं और कारवां बिखरता जाता है साथ कोई नहीं बचता हम अकेले रह जाते हैं । आपको यकीन शायद नहीं आएगा अधिकांश नहीं बल्कि तमाम लोग भीड़ जमा कर चलते हैं लेकिन जाना कहां है नहीं सोचते समझते बस चल पड़ते हैं कोई भी रास्ता दिखाई देता है उसी पर चलने लगते हैं । ज़िंदगी बिताने के उपरांत समझ आता है कि ये रास्ता किसी मंज़िल की तरफ नहीं जाता है , हम भटकते रहते हैं । हमारा देश लोकतंत्र राजनेता धर्म और सच के झंडाबरदार लोग लिखने वाले कुछ भी करने वाले मार्ग से भटक कर जिधर सभी जा रहे हैं भेड़चाल की तरह अनुसरण करते करते थक गए हैं । राजनीति इतनी बदली है कि सत्ता के गलियारे किसी कोठे की नचनियां से भी घटिया वातावरण भाषा और आचरण अपनाने लगे हैं । असलियत छुपाने को झूठी बतियां बनाने लगे हैं ।
ईमानदारी नैतिकता और सामाजिक कल्याण की भावनाओं से अपना दामन छुड़ाकर हम ऐसा समाज बना रहे हैं जिस में गधे आलाप लगाकर आदमी को समझा रहे हैं । विवेक विचार विमर्श की जगह टीवी से सोशल मीडिया तक इक बहस जारी है जिस का कोई अर्थ नहीं निकलता सिर्फ़ सर धुनते हैं दर्शक सुनते हैं । टीआरपी और अपने खुद का गुणगान करना महान मकसद हो गया है , अपने भीतर कितना खोखलापन है कोई नहीं समझता । शोर है ढोल की पोल जैसी बात है अंदर खाली है फटने का डर है । आपको इक बार फिर से अंतर बताता हूं , कविता सभी का दुःख दर्द महसूस करती है , कहानी आपको मार्ग दर्शन देती है , ग़ज़ल बड़ी कठिन है दो मिसरों में बड़ी बड़ी बात कहना । लेकिन साहित्य की ये विधायें आपको हालात से परिचित करवा समझती हैं अपना दायित्व निभा दिया है जबकि व्यंग्यकार की परेशानी ख़त्म नहीं होती वो बदलना चाहता है और इस कोशिश में खुद घायल होने को अभिशप्त है । कांटों की शैया पर व्यंग्य फिर भी चैन से अपनी बात कहता है ।

1 टिप्पणी:
सही बात...अलग पहचान बनाना चाहता है हर कोई
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