मई 02, 2025

POST : 1958 खेल - तमाशा सत्ता का ( खरी- खरी ) डॉ लोक सेतिया

       खेल - तमाशा सत्ता का ( खरी- खरी ) डॉ लोक सेतिया  

जनाब को लड़ना खूब आता है लेकिन दुश्मन देश से नहीं खुद अपने ही देश वाले विरोधी लोगों से किसानों से अपना अधिकार मांगने वालों से । दुनिया को दिखाई दिया उनकी मर्ज़ी बिना परिंदा भी पर नहीं खोल सकता है सभी सड़कें बंद होती हैं किसानों की राहों पर कीलें और अवरोध खड़े होते हैं । आतंकवादी कब किस रास्ते घुसते हैं उनको नहीं चिंता बस खुद सुरक्षित हैं उनकी सत्ता को कोई खतरा नहीं है उनका पूरा प्रबंध है । जो गरजते हैं बरसते नहीं कुछ ऐसे बादल जैसे हैं शोर ही शोर है देश सही दिशा में बढ़ रहा है वास्तव में समाज की हालत खराब से अधिक खराब हो रही है । कभी उस दुश्मन देश से कभी इस दुश्मन देश से जंग का ऐलान होता है जैसे क्रिकेट में फ्रेंडली मैच होता है जीत हार से कोई फर्क नहीं पड़ता आपसी मेलजोल कायम रहता है । क्रिकेट खिलाड़ी आजकल चाहने वालों को जुए के खेल में फंसाने का कार्य कर खुद मालामाल होते हैं दुनिया को कंगाल कर अपना घर भरते हैं । जनाब ने भी शतरंज की चाल चली है आतंकवाद को छोड़ कर अपना इरादा बदल कर धर्म की बात से बढ़कर जातीय जनगणना का पासा आज़माया है । दुश्मन के लिए नहीं खुद अपने लिए सत्ता ने जाल बिछाया है । किसी खिलाड़ी ने अपनी ऐप्प पर लड़ने का तमाशा बनाया है उस दुश्मन को आमने सामने बिठाया है । सहमति बनाई है दुश्मन भी आखिर सौतेला ही सही भाई है हाथ में इक कटोरा है कटोरे में मलाई है । दुश्मन को हारना होगा मुंह मीठा करवाना है जीत कर जनाब ने शर्त लगाई है । मैच फिक्सिंग में हारने में पैसा मिलता है तो जीतना कोई नहीं चाहता , ये जीत हार सब बहाना है दोनों को अपने घर जाकर झूठ को सच बताना है । आप क्या देखना चाहते थे आपको याद नहीं रहता है सामने मंज़र बदल जाता है , कुछ होने वाला है अब कि दुश्मन को मज़ा चखाना है । यही सोचते सोचते समय गुज़रता रहता है इक आलीशान महल है जिसकी कोई बुनियाद नहीं है कांपता है लगता है अभी ढहता है । उसी में आतंकवाद छुपकर नहीं खुलेआम रहता है , मगर सभी ललकारते हैं उसके ठिकाने के करीब नहीं जाते कोई खून का दरिया पानी बनकर बीच राह में बहता है । कोई शायर है साहिर लुधियानवी , जंग को लेकर कहता है जंग खुद इक मसला है जंग क्या मसलों का हल देगी । इसलिए ए शरीफ़ इंसानों जंग टलती रहे तो बेहतर है , आप और हम सभी के आंगन में शम्मा जलती रहे तो बेहतर है ।
 
 
 
जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल पेश है : - 

 
मौज-ए - गुल , मौज- ए - सबा , मौज- ए - सहर लगती है
सर से पा तक वो समां है कि नज़र लगती है । 
 
हमने हर गाम सजदों ए जलाये हैं चिराग़ 
अब तेरी रहगुज़र रहगुज़र लगती है । 
 
लम्हें लम्हें बसी है तेरी यादों की महक 
आज की रात तो खुशबू का सफ़र लगती है । 
 
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं 
देखना ये है कि अब आग़ किधर लगती है । 
 
सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है 
हर ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है ।
 
वाक़या शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ 
ये तो ' अख़्तर ' दफ़्तर की खबर लगती है ।  
 

Garibi - Amar Ujala Kavya - गरीबी...

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

बढ़िया सामयिक👌👍