मुझे लिखते रहना है निरंतर ( संकल्प ) डॉ लोक सेतिया
मुझे लिखना है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कोई नहीं पास तो क्या
बाकी नहीं आस तो क्या ।
टूटा हर सपना तो क्या
कोई नहीं अपना तो क्या ।
धुंधली है तस्वीर तो क्या
रूठी है तकदीर तो क्या ।
छूट गये हैं मेले तो क्या
हम रह गये अकेले तो क्या ।
बिखरा हर अरमान तो क्या
नहीं मिला भगवान तो क्या ।
ऊँची हर इक दीवार तो क्या
नहीं किसी को प्यार तो क्या ।
हैं कठिन राहें तो क्या
दर्द भरी हैं आहें तो क्या ।
सीखा नहीं कारोबार तो क्या
दुनिया है इक बाज़ार तो क्या ।
जीवन इक संग्राम तो क्या
नहीं पल भर आराम तो क्या ।
मैं लिखूंगा नयी इक कविता
प्यार की और विश्वास की ।
लिखनी है कहानी मुझको
दोस्ती की और अपनेपन की ।
अब मुझे है जाना वहां
सब कुछ मिल सके जहाँ ।
बस खुशियाँ ही खुशियाँ हों
खिलखिलाती मुस्कानें हों ।
फूल ही फूल खिले हों
हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।
वो सब खुद लिखना है मुझे
नहीं लिखा जो मेरे नसीब में ।
ये कविता शुरुआती समय की लिखी साधरण शब्दों में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करती है ब्लॉग पर भी 12 साल पहले 2012 में पब्लिश की थी । इक जाने माने कवि को ईमेल से भेजी तो उनकी सराहना पाकर लगा कोई सार्थकता दिखाई दी होगी उनको तभी पहली बार ऐसा उत्साह बर्धन मिला मुझको । लिखना मेरे लिए कोई शौक या ख़्वाहिश नाम शोहरत पाने का माध्यम नहीं है , इक संकल्प है जूनून है समाज को कुछ देने उसको बेहतर बनाने के प्रयास की ख़ातिर । करीब पचास साल पहले जो तय किया था अपने समाज और देश की समस्याओं विसंगतियों विडंबनाओं को लेकर पत्र चर्चा या किसी से मिलकर समाधान सुधार करने के लिए समय के साथ उसका स्वरूप बदलते बदलते कविता ग़ज़ल कहानी व्यंग्य बन गया है । कभी कभी कितनी बार धैर्य टूटना और निराश होना इस रास्ते में आता रहा है मगर हमेशा फिर आगे चलते रहने का ही निर्णय लिया है । थमना थककर ठहरना मुझसे कभी हुआ नहीं फिर से इक सोच रही है मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही है ।
कोई संगी साथी नहीं कोई भीड़ नहीं कोई संगठन जैसा नहीं बस अकेले ही अपनी इक पगडंडी बनाकर इक मंज़िल प्यार और मानवता की ढूंढने और बनाने की कोशिश करना चाहता हूं । जानता हूं आधुनिक युग में पढ़ना और समझना शायद ही कोई चाहता है और पढ़ कर असर होना बदलाव होना और भी कम आशा की जा सकती है । जब देखते हैं तमाम लोग निष्पक्षता से किनारा कर अपनी कलम का उपयोग किसी अन्य मकसद से करते हैं कभी विचारधारा से बंधे कभी धर्म राजनीति से जुड़े इकतरफ़ा लेखन करते हैं अथवा लिखने से नाम शोहरत कुछ और हासिल करना चाहते हैं तब महसूस होता है आज का क़लमकार भटक गया है । साहित्य सृजन करते करते भटक जाना या यूं कहें बहक जाना इस से बचना है बड़ी फ़िसलन है , मुमकिन है कुछ लोग सैकड़ों किताबें लिख कर शोहरत की बुलंदी पर खड़े भौतिक आर्थिक लाभ अर्जित कर खुश हैं अपना ध्येय हासिल कर , मगर क्या मेरे जैसे बेनाम लिखने वालों से अधिक समाज को बदलाव ला पाए हैं या फिर कुछ लोगों तक उनकी किताबें पहुंची हैं इतना ही हुआ है ।
मैं कोई और मकसद नहीं रखता लिखने में सिर्फ जैसा भी समाज है लोग हैं जैसा वातावरण पहले से भी खराब होता जा रहा है उसको रेखांकित करना उजागर कर संबंधित वर्ग तक बात पहुंचाना ज़रूरी है । जी नहीं मैं कोई उपदेशक नहीं किसी को सही या गलत साबित नहीं करना मुझको , सच दिखाना दर्पण का कार्य है भले अंजाम कुछ भी हो । सोचता हूं कि जितने भी पढ़ते हैं कुछ पर ही सही प्रभाव पड़ता अवश्य होगा , मुमकिन है अभी नहीं तो भी कभी न कभी लोग पढ़कर समझेंगे सोचेंगे कि किसी ने ज़िंदगी की उलझनों कठिनायों से जूझते हुए भी पतवार को थामे रखा कश्ती को भंवर में डूबने नहीं दिया खुद बचने को । निराशा है परेशानी है जब समाज में अधिकांश लोग वास्तव में जैसा करना चाहिए उस से विपरीत कार्य करते हुए भी संकोच नहीं करते । बुद्धिजीवी समाज पत्रकारिता समाज की संस्थाएं अपने कर्तव्य निभाने को छोड़ नैतिकता को भूलकर आडंबर और प्रचार में लगे हुए हैं । जिनको सभ्य समाज का निर्माण करना था वही पुरातन मूल्यों को ताक पर रख साहित्य की परिभाषा को बदलना चाहते हैं । साहित्य और प्रकाशन का इक बाज़ार बनाया गया है जिस में लोग अख़बार पत्रिकाएं किताबें छापकर धनवान बन रहे मालामाल होते जाते हैं लेकिन लिखने वाला लेखक वहीं खड़ा है अपनी आजीविका का कोई अन्य साधन तलाशता । सामाजिक शोषण पर मुखर लेखक मौन है बेबस है अपनी बर्बादी किसको बताये । सोशल मीडिया के सवर्णिम काल में ए आई अर्थात नकली होशियारी ने संजीदगी पूर्वक लेखन को किनारे कर दिया है , हर कोई बिना भाषा अर्थ समझे जाने लिखने लगा है ।
लिखना अच्छी बात है मगर क्या लिखना चाहिए मालूम होना चाहिए और कितनी बार लगता है कि ऐसा नहीं लिखना अच्छा था । ये बात किसी और के लिए नहीं खुद अपने बारे भी कहना ज़रूरी है कितनी बार पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है बहुत कुछ लिखना उचित नहीं था कुछ को दोहराया जाता रहा बार बार जो कोई शानदार शैली नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि किसी बात को अधिक बार दोहराने से अच्छी बात भी आपकी अहमियत खो देती है । सार्वजनिक मंच पर लिखा मिटाने से भी बिगड़ी बात बनती नहीं है इसलिए लेखक को पहले बार बार सोच विचार कर ही लिखना चाहिए । अंत में खुद अपने आप से साक्षात्कार करती इक कविता प्रस्तुत है ।
अपने आप से साक्षात्कार ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
हम क्या हैं
कौन हैं
कैसे हैं
कभी किसी पल
मिलना खुद को ।
हमको मिली थी
एक विरासत
प्रेम चंद
टैगोर
निराला
कबीर
और अनगिनत
अदीबों
शायरों
कवियों
समाज सुधारकों की ।
हमें भी पहुंचाना था
उनका वही सन्देश
जन जन
तक जीवन भर
मगर हम सब
उलझ कर रह गये
सिर्फ अपने आप तक हमेशा ।
मानवता
सदभाव
जन कल्याण
समाज की
कुरीतियों का विरोध
सब महान आदर्शों को छोड़ कर
हम करने लगे
आपस में टकराव ।
इक दूजे को
नीचा दिखाने के लिये
कितना गिरते गये हम
और भी छोटे हो गये
बड़ा कहलाने की
झूठी चाहत में ।
खो बैठे बड़प्पन भी अपना
अनजाने में कैसे
क्या लिखा
क्यों लिखा
किसलिये लिखा
नहीं सोचते अब हम सब
कितनी पुस्तकें
कितने पुरस्कार
कितना नाम
कैसी शोहरत
भटक गया लेखन हमारा
भुला दिया कैसे हमने
मकसद तक अपना ।
आईना बनना था
हमको तो
सारे ही समाज का
और देख नहीं पाये
हम खुद अपना चेहरा तक
कब तक अपने आप से
चुराते रहेंगे हम नज़रें
करनी होगी हम सब को
खुद से इक मुलाकात ।
1 टिप्पणी:
लेखन क्यों....किसलिए...क्या लिखना...पत्रकारिता का सही मकसद....लेखक की बजाय प्रकाशक धनवान बन रहे हैं...आदि आदि पर सार्थक लेख👍
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