ऊंचाई से ढलान पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
आज फिर ज़रूरत महसूस हुई पुराने महान शख़्सियत वाले हमारे नायकों की जो आज़ादी से पहले भी और देश की आज़ादी के बाद भी गर्व से सर ऊंचा कर दुनिया भर में अपनी महान विरासत और बौद्धिक शक्ति से विदेशी सरकारों जनता को प्रभावित कर सकते थे । आज भी स्वामी विवेकानंद से महात्मा गांधी तक इक लंबी सूचि है जिनकी कही बातों विचारों ने भारत देश का डंका विद्वता को लेकर दुनिया में बजाया था । तमाम लोग कितनी भाषाओं के जानकर और विचारों उच्च आदर्शों की खान हुआ करते थे साथ ही निर्भय होकर साहसपूर्वक अपनी बात रखकर प्रभावित किया करते थे । आर्थिक भौतिक तौर पर देश पिछड़ा होने के बाद भी शिक्षा ज्ञान और विवेकशीलता के मापदंड पर किसी भी पश्चिमी सभ्यता से शानदार साबित होते थे । अभी भी हम अपनी गौरवशाली विरासत परंपराओं की बात करते हैं जबकि अपने वास्तविक व्यवहार में हम उन सभी को छोड़ विदेशी तौर तरीके अपना कर दोहरे चरित्र वाले बन चुके हैं । अभी कुछ दिन पहले इक ऐसा आंकलन पढ़ने को मिला जिस में बताया गया था कि तीन चौथाई भारतीय किसी बाहर विदेशी यात्रा पर नहीं जाते और आधी आबादी तो देश में भी अपने आस पास तक ही जाती है । लेकिन जो करोड़ों लोग किसी भी कारण विदेशों में जाते हैं घूमने नौकरी कारोबार करने उनकी भी जानकारी सिमित रहती है कोई सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक नहीं होती है । आपने देखा होगा सुनते होंगे कुछ लोग सोशल मीडिया पर फोटो वीडियो पोस्ट करते हैं लेकिन मैंने जब भी ऐसे लोगों से चर्चा की हैरानी हुई क्योंकि सभी ने विदेश में कुछ स्थानों को देखने घूमने और मौज मस्ती मनोरंजन करने को ही महत्व दिया । वहां की सामाजिक अथवा राजनीतिक सुरक्षा और अधिकारों को लेकर सजगता जैसे विषयों पर कोई जानकारी हासिल नहीं की अधिकांश जैसे गए थे उसी तरह लौटे । अधिकांश ने खुद कोई बदलाव नहीं महसूस किया और न ही अनुभव किया कि उनसे किसी देश के लोगों ने कुछ हासिल किया कभी ऐसा लगा ।
हमने कितनी बार देखा कोई प्रतिनिधिमंडल किसी देश या कई देशों में भ्रमण करने गया वहां की शिक्षा स्वास्थ्य प्रणाली कृषि आदि को समझा लेकिन देश में आकर कोई सार्थक पहल दिखाई कम ही दी है । कारण एक ही है कि हमारे समाज में पैसा सबसे महत्वपूर्ण हो गया है और जो बातें वास्तव में अनमोल हैं उनकी कीमत गौण समझी जाने लगी है । शिक्षक व्यौपार , राजनेताओं को छोड़ दें तो पुराने सामाजिक धार्मिक संतों महात्माओं ने भी जितना संभव हुआ देश विदेश जाकर समाज को जागरूक किया और सही मार्गदर्शन दिया । अब तो हमने मशीनी चीज़ों को छोड़ मानवीय आदर्शों संवेदनाओं को जीवन से बाहर कर दिया है जैसे उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं रही है । हमने रटी रटाई किताबी पढ़ाई को ही ज़िंदगी का आधार मान लिया है और अपनी बुद्धि विवेकशीलता को भुला बैठे हैं । हमको लगता है आधुनिक उपकरण संसाधन और तथाकथित विकास से समाज शानदार बन जाएगा जबकि ये सच नहीं है बल्कि जब ये सभी नहीं था और हम लोग सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करते थे तब सामाजिक पारिवारिक नैतिक रूप से कहीं बेहतर हुआ करते थे । पहले हम मानसिक तौर पर ऊंचाई पर खड़े थे अब ढलान पर हैं और लगता है फिसलते फिसलते गिरते जा रहे हैं ।
भारतवर्ष इक पुरातन देश है जिसकी अपनी अलग पहचान रही है , शासक बदलते रहते हैं लेकिन किसी ने भी अपनी सभ्यता अपनी कूटनीति रणनीति को अनदेखा नहीं किया । आज़ादी के बाद हमने दुनिया के सभी गुटों से अलग गुट निरपेक्षता को अपनाया , पूंजीवाद को छोड़ धर्मनिरपेक्ष और ऐसे समाजवाद को आधार बनाया जिस में सरकार से अधिक महत्व जनता की समानता का समझा जाता है । जाने कैसे हमारी देश की सरकार पत्रकारिता और अन्य महत्वपूर्ण संगठन इक ऐसे झूठे विकास की तरफ बढ़ने लगे जिस से कुछ ख़ास अमीरों धनवानों को छोड़ बाक़ी जनता का कोई कल्याण नहीं हो सकता , जबकि उस विकास की कीमत साधरण नागरिक कितनी तरह से चुकाता है । रईसों की तिजोरी भरने लगी और जनता की हालत इस कदर खराब हुई कि सरकार 80 करोड़ लोगों को राशन बांटने को विवश हुई , राजनीतिक विचारधारा बदली और
जनता को दाता से भिखारी बना दिया गया ।
सत्ता अंधी और स्वार्थी बन गई है और लोग इक मोहजाल में फंसते गए हैं । ऐसा होने का कारण भी है , हमारे देश समाज में काबलियत की कोई कद्र नहीं समझी जाती है , अवसर मिलना आगे बढ़ना हो तो कुछ और सहारे बैसाखियों की तरह ज़रूरी लगते हैं । राजनीति समाज से प्रशासन की व्यवस्था तक हर कोई अवसरवादिता का शिकार है कहीं कुछ भी सामन्य ढंग से होता नहीं है । हमने अपनी बुनियाद को ही खोखला कर दिया है व्यवस्था चरमर्रा कर कभी भी ध्वस्त हो सकती है प्रतीत होता है । आखिर में शायर राजेश रेड्डी जी की ग़ज़ल के कुछ शेर याद आते हैं । आज मुरझाया उदास अकेला लगता है हर कोई कभी हंसता मुसकुराता खिला खिला होता था हर कोई यहां । हमने कितना कुछ हासिल कर लिया है लेकिन कैसे हासिल किया है खुद अपनी ही नज़रों में गिरने के बाद ।
रंग मौसम का हरा था पहले , पेड़ ये कितना घना था पहले ।
मैं ने तो ब'अद में तोड़ा था इसे , आईना मुझ पे हंसा था पहले ।
जो नया है वो पुराना होगा , जो पुराना है नया था पहले ।
ब'अद में मैंने बुलंदी को छुआ , अपनी नज़रों से गिरा था पहले ।

1 टिप्पणी:
घूमने फिरने सैर सपाटों को जाते हैं। पहले जैसी विद्वता लोगो मे अब कहाँ👌👍
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