सबसे बड़ा झूठा पुरूस्कार ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया
हमने जाने कितनी कथाएं कहानियां सुन रखी हैं झूठ बोलने को लेकर , उनकी बात करने लगे तो आज की कहानी की शुरुआत भी संभव नहीं होगी इसलिए सीधी बात करते हैं । पिछले तीन सप्ताह बड़े ही कठिनाई और तनावपूर्ण हालात रहे हैं लेकिन चार दिन से भारत पकिस्तान की जंग से बढ़कर हमारे देश के समाचार चैनलों ने हर किसी को भयभीत करने और संशय का वातावरण बनाने में जैसे झूठ और मनघड़ंत खबरों का इतिहास रचने का ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया है कि अब कोई उनके मुकाबले खड़ा नहीं हो सकता है । अब ज़रूरत है कि पत्रकारिता की परिभाषा को बदल कर मुझसे बढ़कर झूठा कोई नहीं कर दिया जाये । समाचार का अर्थ सच को दफ़्ना कर झूठ को सच बनाना किया जाना चाहिए । टीवी चैनलों में पहले भी कितने तरह के ख़िताब ईनाम पुरुस्कार इत्यादि बंदरबांट की तरह अपने को देते हैं सभी चैनल नंबर वन हैं । जनता को अब इक और शिखर का चुनाव करना होगा इतने सारे चैनलों में सबसे भरोसेमंद झूठ का तमगा किस को मिलना चाहिए । विज्ञापनों का झूठ राजनेताओं के भाषणों का झूठ और तथाकथित महान विचारकों से लेकर तमाम नाम शोहरत वालों की झूठी कहानियों घटनाओं का झूठ सरकारी दफ्तरों फ़ाइलों आंकड़ों से लेकर देश समाज सेवा और धनवान लोगों की ईमानदारी की कमाई का झूठ सभी बौने हो गए हैं टीवी चैनलों का झूठ उस ऊंचाई पर पहुंच गया है ।
खुद को सच का झंडाबरदार कहने वाले वास्तव में कभी सच के साथ खड़े नहीं थे , सच के क़ातिल वही हैं मगर उनकी अपनी अदालत अपने गवाह अपने ही घड़े हुए सबूत और खुद वही फैसला सुनाने वाले न्यायधीश भी बने बैठे थे । लेकिन हमने ही नहीं बल्कि दुनिया भर ने उनका तमाशा देखा जब उन्होंने देशहित को दरकिनार कर सरकार के निर्देश को अनदेखा कर ऐसे ऐसे ख़तरनाक़ मंज़र जंग के दिखाए जो हुए ही नहीं । सोचने पर समझ आया कि उनकी मानसिकता क्या है उनको ऐसे दृश्य रोमांचक लगते हैं और ऐसा मनोरंजन जिस से उनका धंधा कारोबार टीआरपी आसमान पर पहुंच जाये । अर्थात उनकी संवेदना उनका ज़मीर इस स्तर तक निचले पायदान पर आ पहुंचा है जहां स्वार्थ और अपना फायदा इंसानियत को छोड़ने की कीमत पर भी ज़रूरी लगता है । जाने इस सीमा तक झूठ से गुमराह कर के उनको शर्म भी नहीं आती होगी अथवा वो अपनी अंतरात्मा में झांकते ही नहीं होंगे कभी । सरकार और राजनेताओं की कमज़ोर नस उनको पता है इसलिए उन पर अंकुश कोई नहीं लगाएगा मालूम है , लेकिन इक कार्य किया जाना आवश्यक है ।
अस्वीकरण ( घोषणा )
जैसे फिल्मों में और विज्ञापनों में घोषणा की जाती है , टीवी चैनल समाचार दिखाने पढ़ने से पहले हर बार दर्शकों को बताएं की इसकी सत्यता प्रमाणित नहीं है और आपको भरोसा नहीं करना चाहिए । भाषा सुविधानुसार बदली जा सकती है । आख़िर में इक ग़ज़ल पढ़ सकते है सच को लेकर कही थी कभी ।
इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
इस ज़माने में जीना दुश्वार सच काअब तो होने लगा कारोबार सच का ।
हर गली हर शहर में देखा है हमने ,
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का ।
ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का ।
झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का ।
अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का ।
कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का ।
सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का ।
हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का ।
छोड़ जाओ शहर को चुपचाप ' तनहा '
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का ।
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