अगस्त 31, 2014

POST : 450 बदलते समय की मुहब्बत ( कहानी ) डॉ लोक सेतिया

      बदलते समय की मुहब्बत ( कहानी ) डॉ लोक सेतिया

            कहानी सच्ची है केवल नाम बदले हुए हैं। शायद अभी अधूरी है कहानी। लगता है नई कहानी का भी वही पुराना अंजाम ही होगा। ललित कॉलेज में पढ़ता था कुछ साल पहले जब उसको किसी से इश्क हो गया। मिलते रहे दोनों हर शाम , जन्म जन्म तक साथ देने की बातें की आपस में। शिक्षा पूरी करने के बाद ललित ने बाज़ार में अपना गिफ्ट शॉप का कारोबार शुरू कर लिया और प्रेमिका को एक अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई। शहर अलग अलग थे दोनों के कुछ किलोमीटर की दूरी थी। अपना कारोबार जमा लेने के बाद ललित मिला अपनी प्रेमिका से जाकर और शादी की बात की उसके साथ। सोच में पड़ गई प्रेमिका क्या करे। उसको इस बीच साथ  जॉब करने वाले सीनियर अधिकारी ने परपोज़ किया था मगर  उसने माता पिता से बात करने को कह दिया था। तब पंद्रह साल पहले सब के पास फोन नहीं था हर दिन सम्पर्क करने को। ललित की मां को जब ललित ने बताया कि उसको किसी से प्यार है तो इकलौते बेटे की खुशी को सब से अधिक महत्व देने वाली ममता भरी मां कैसे नहीं मानती। वो खुद ही चली गई थी रिश्ते की बात लेकर। सोच कर बताने को कहा गया था। सोचना क्या था , जब दोनों इक दूजे को पसंद कर चुके थे। मगर जब प्यार को दुनियादारी के तराज़ू में तोला जाता तब अंजाम यही होता है। प्रेमिका मान गई थी कि माता पिता ठीक  ही कहते हैं कि उसके लिये सरकारी जॉब वाला लड़का ही सही रहेगा। देखने में सुंदर नहीं तो क्या हुआ , और प्यार तो शादी के बाद हो ही जाता है। बीस साल की उम्र का प्यार तो नासमझी में हो जाता है। तब लड़की किसी बेल की जैसी होती है जो सहारा मिले उसी को लिपट जाती है। कोई जवाब नहीं मिला था ललित को न उसकी मां को , वो इंतज़ार करते रहे और पता चला कि उस प्रेमिका की चट मंगनी पट शादी हो गई। ललित ने कोई शिकायत नहीं की थी किसी से , मान लिया था कि प्यार में अपनी नहीं उसकी खुशी देखनी चाहिये जिसको चाहते हो। शायद उसके लिये वही ठीक होगा। मां को भी समझा लिया था कि ये बात कभी किसी को नहीं कहनी है। मां ललित के लिये लड़की , अपनी बहू की तलाश अधूरी छोड़ दुनिया को अलविदा कहने से पहले अपनी ननद को ये काम पूरा करने को कह गई थी।

        ललित को आंटी ने अपना दूसरा बेटा मान लिया था और उसका ध्यान रखने लगी , दो घर थे साथ साथ , बीच की दीवार हटा कर एक बड़ा घर बन गया। आंटी जॉब करती , अपने बेटे की शिक्षा पूरी करवाती रही और ललित को शादी करने को मनाती रही।  ललित को कोई भी पसंद ही नहीं आती थी , आंटी सेवानिवृत हो गई , उसके बेटे की शादी भी हो गई मगर ललित अभी तक कुंवारा ही था। चालीस की उम्र में उसकी पसंद की लड़की मिलना और भी कठिन हो गया। आंटी चाहती थी ललित की बहू आये उसका घर संभाल ले ताकि वो अपने बेटे और बहू के साथ दूसरे नगर में जाकर रह सके। आंटी की इक सहेली को उनकी बहू ने बताया अपनी दोस्त राधिका के बारे में जो उनके राज्य में सरकारी नौकरी करती है और जो बहुत ही सुशील है मगर उसकी शादी नहीं हो पा रही क्योंकि उसकी जन्मकुंडली ही नहीं मिलती जिस किसी को भी पसंद करती जब रिश्ते की बात होती माता पिता से। जब उसने आंटी के भतीजे ललित के बारे बताया तो उसने कहा कि लगता तो दोनों के लिए सही है हां ललित की उम्र सात साल ज़्यादा है जबकि राधिका अपनी उम्र से भी कम की नज़र आती है। उस सहेली ने राधिका की बड़ी बहन को फोन पर बताया था। वंदना अपनी बहन राधिका के लिये ललित को देखने आई थी , उसको पसंद आया था ललित बहुत , वो कुंडली भी साथ लेकर आई थी और इक फोटो भी राधिका का। पंडित जी को फोन पर सब जानकारी देकर वंदना ने कुंडली मिलवा ली थी , जो मिल गई थी। ललित को आंटी ने तैयार कर लिया था और वो गया था राधिका को देखने। दोनों दो घंटे मिले थे अकेले में और खुल कर हर बात की थी , जाने कैसे क्या हुआ कि दोनों को महसूस हुआ था कि यही तो है जिसकी मुझे तलाश है। ललित ने राधिका को कहा था कि अभी हम दोनों सब सोच लें और एक दो बार और मिलते हैं ताकि बाद में कोई बात दिल में नहीं रह जाये , राधिका मान गई थी। मिले थे दो बार , रविवार को ललित आता था मिलने घर से बाहर। कुछ ही दिन में उनको प्यार हो गया था इक दूजे से। घर पर बता दिया था दोनों ने कि हमको रिश्ता मंज़ूर है , लगा बात बन गई है , मगर जो हुआ वो हैरान करने वाला था। पिता को लगा की दूसरे राज्य के शहर विवाह किया तो बेटी की नौकरी का क्या होगा और उन्होंने ये कह दिया ललित की आंटी को कि रिश्ता केवल तभी हो सकता अगर ललित यहां आकर कारोबार करने को राज़ी हो। ये बात आंटी को बिल्कुल भी पसंद नहीं थी कि कोई लड़का ससुराल जाकर रहे।बात बीच में ही रह गई थी।

        मगर ललित को लगा कि एक बार राधिका से बात करनी चाहिये दोस्त बन कर। जब उसने राधिका से पूछा कि क्या कोई रास्ता नहीं है इस समस्या का हल निकालने का। साफ साफ बता दो आपके दिल में मेरे लिये क्या भावना है। राधिका का जवाब था कि ललित जी आपको क्या लगता है मेरे बारे पहले आप मुझे बताओ। ललित ने कहा मुझे आप बेहद पसंद हैं और मैं आपको अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं। राधिका बोली थी ललित जी मुझे भी आप बहुत ही अच्छे लगते हैं और मुझे भी आपको जीवनसाथी बनाना है। सच कहूं तो मुझे लगता है मुझे प्यार हो गया है आपसे मगर समझ नहीं पा रही थी आपसे कैसे कहूं। आज लगा कि अगर नहीं कहा तो आप मुझे कभी मिल नहीं सकोगे। मुझे अपनी नौकरी की चिंता नहीं है मैं आपके लिये उसको छोड़ सकती हूं मगर अपने परिवार को कैसे समझाऊं मैं नहीं जानती। तब ललित ने कहा था राधिका जी मैं भी इन कुछ ही दिनों में आपको दिलोजान से प्यार करने लगा हूं और आपके लिये सब कुछ कर सकता हूं। मेरा कारबार दस साल पुराना है और स्थापित है फिर भी मैं अगर आप कहोगी तो उसको बंद कर आपके राज्य में किसी शहर में नया फिर से शुरू कर सकता हूं , लेकिन किसी शर्त को मान कर नहीं , आपकी ख़ुशी के लिये। मगर आपके इस शहर को छोड़कर , क्योंकि ऐसा मुझे अनुचित लगता है , आप जिस भी शहर में अपना तबादला करवा लगी मैं वहीं आपके लिये घर खरीद लूंगा। आप अपने मॉम डैड को मना लो। राधिका ने कहा कि आपकी बात सही है और अगर आप मेरे लिये ये सब करने को तैयार हैं तो मुझ से भाग्यशाली और कोई नहीं हो सकती , लेकिन आपको ऐसा करने को विवश करके मैं खुद अपनी ही नज़र में गिर जाऊंगी इसलिये ये बात मैं कभी नहीं होने दूंगी। मुझे आपसे कोई शर्त नहीं मनवानी है मॉम डैड की। शायद अब मेरे प्यार का भी इम्तिहान है और मेरा प्यार स्वार्थी नहीं है। मैं आज ही सब को बता दूंगी कि मुझे आपको छोड़ किसी से भी शादी नहीं करनी है और मुझे अपने इस राज्य में नौकरी नहीं करनी है। हम आपके शहर में दूसरी नौकरी तलाश कर लेंगे। राधिका और ललित ने तभी वंदना दीदी को ये निर्णय बता दिया था ताकि वो घर में बाकी सब को मना सके। ललित और राधिका ने तय कर लिया था कि चाहे जो भी हम दोनों अलग नहीं होंगे। हर रविवार बीच में इक शहर में मिलते रहेंगे , वही प्रेमियों का पुराना बहाना , सतसंग को जाना और प्यार से मिलना।

              ललित ने आंटी को बता दिया था कि राधिका और मैं प्यार करते हैं और हमने तय किया है कि राधिका अपनी जॉब छोड़ देगी और यहां नई जॉब ढूंढ लेंगे हम मिलकर। उधर वंदना ने जब घर पर बताया कि ललित और राधिका इक दूजे को चाहते हैं और ये भी कि राधिका अपनी नौकरी छोड़ने को तैयार है ललित की खातिर। पुरानी सोच के माता पिता ये सुन कर आग बबूला हो गये थे , उनको लगा कि बेटी उनकी मर्ज़ी के बिना शादी करने को कैसे तय कर सकती है। वो अपनी पुरानी बात पर अडिग थे कि रिश्ता तभी हो सकता है अगर ललित उनके शहर में आकर रहने को राज़ी हो। इस तरह बहुत बातें दो परिवारों में होने लगी इक दूजे को अपनी बात समझाने को। वंदना ने ललित की आंटी को कहा था कि आंटी बेशक ऐसा मुझे भी उचित नहीं प्रतीत होता तब भी अगर आप और हमारे मॉम डैड अपनी अपनी बात पर अड़े रहे तो ये दोनों चाह कर भी खुश नहीं रह सकेंगे। फोन पर ही बात हुई थी , आंटी ने कहा था कि उनका मकसद कोई ज़िद नहीं है केवल ललित और राधिका का भविष्य है। आज ललित की बहुत ही अच्छी आमदनी है , चलता हुआ पुराना कारोबार है , कल अगर नई जगह ईश्वर न करे नहीं चल पाया तो परेशानी उन्हीं को होगी। और राधिका को जॉब हम यहां भी दिलवा सकते हैं। मैं आपके मॉम डैड से बात करूंगी और उम्मीद है वो भी समझेंगे। आखिर बेटी को जाना ही होता है पति के घर , आप भी तो उनसे दूर रहती हो अपने पति के साथ। आंटी ने उसी दिन शाम को फोन किया था और राधिका के डैड को कहा था कि मेरे लिये राधिका मेरी बेटी है मैं उसको कोई परेशानी नहीं आने दूंगी , आप ये शर्त छोड़ कर मेरी झोली में डाल दो राधिका को। अब वो मेरी बेटी है। मगर राधिका के माता पिता नहीं माने थे। राधिका के पिता ने कहा था कि आप धर्म को मानने वाली महिला होने की बात करती हैं और किसी से उसकी बेटी ज़बरदस्ती छीन लेना चाहती हैं , क्या ऐसा करना आपको शोभा देता है। आंटी ने कहा था भाई साहब मैं तो दोनों बच्चों की ख़ुशी चाहती हूं तभी आपसे निवेदन किया है , विवश करने का तो सवाल ही नहीं और छीनना तो कदापि नहीं। आपसे ये मेरा वादा है कि मैं कभी आपकी मर्ज़ी के बिना राधिका की शादी ललित से नहीं करना चाहूंगी , उनको ऐसा कोई कदम उठाने को मैं नहीं कह सकती। और ललित अगर चाहे तो कहीं भी राधिका के संग रह सकता विवाह करके , मैं रोकूंगी नहीं उसको , लेकिन जब खुद राधिका ही अपनी जॉब छोड़ना चाहती है तब उसको इतनी तो आज़ादी मिलनी ही चाहिये। आप ठंडे मन से सोच कर फैसला करें यही आग्रह करती हूं।

                      बात वहीं रुक कर रह गई थी , मगर ललित और राधिका हर रविवार मिलते रहे। शायद दोनों ने इसको नियति मान लिया था कि चाह कर भी वो एक नहीं हो सकते थे। फोन पर बात होती रहती थी ये बात ललित की आंटी भी जानती थी और राधिका के मॉम डैड और बड़ी बहन वंदना भी। और इस बीच इक घटना हुई या फिर इक इतेफाक कि जब शाम को राधिका को उसकी ट्रैन पर चड़ा कर ललित बसस्टैंड पहुंचा तब बस निकल चुकी थी उसके शहर जाने वाली , और वो सड़क पर किसी अन्य वाहन की राह देख रहा था। तभी एक कार रुकी थी और उसका मालिक चाय पीने लगा था स्टॉल पर , ललित ने जाकर उनसे पूछा था , अंकल जी आपको किधर जाना है।  मेरी आखिरी बस छूट गई है और मुझे अपने अमुक शहर जाना है , क्या आप मुझे लिफ्ट दे सकते अगर उसी तरफ जाना है। और वो मान गये थे , बताया था कि उनको जिस शहर तक जाना है वहां तक चल सकते और वहां से बस चौबीस घंटे मिलती भी है। रस्ते में इक दूजे को बताया दोनों ने अपना अपना परिचय। वो इक कहानीकार हैं और ललित उनके नाम से परिचित भी था इसलिये उनसे मिलकर ख़ुशी हुई उसको। इस बीच राधिका का फोन आया था , बताने को कि वो घर पहुंच चुकी है , ललित कहां तक पहुंचा है पूछना चाहती थी।  ऐसे में नेटवर्क चला गया और बात बीच में कट गई थी , कार चला रहे व्यक्ति ने पूछा क्या आपकी पत्नी का फोन था , अगर आपके फोन का नेटवर्क नहीं है तो मेरा उपयोग कर सकते हो। नहीं , वो मेरी प्रेमिका है हमारी दोनों की शादी हुई नहीं अभी तलक , मगर शुक्रिया आपका फोन उपयोग नहीं कर सकता न ही ज़रूरत है।  उनको ललित की साफगोई अच्छी लगी थी , उन्होंने कहा था बेटे मुझे आपकी निजि ज़िंदगी से कोई मतलब नहीं है मगर इतना अवश्य समझाना चाहता हूं कि जीवन में सच्चा प्यार पाने को सब कुछ करना चाहिये। ये इसलिये कहता हूं क्योंकि मुझे भी जवानी में किसी से प्यार हुआ था लेकिन मैंने उसका इज़हार तक नहीं किया था इस डर से कि वो इनकार कर देगी। बेशक मैं खुश हूं मेरी शादी हो चुकी है , बीवी अच्छी है , बच्चे हैं जो प्यारे हैं तब भी कभी कभी सोचता हूं कि मुझे उसको न केवल बताना चाहिये था कि मुझे उस से प्यार है बल्कि हर कोशिश करनी चाहिये थी। मैं नहीं जनता मेरी प्रेम कहानी का अंजाम क्या होता , और ये बात मेरी कहानियों में भी झलकती है अक्सर। मगर तुम अपनी प्रेम कहानी को सही अंजाम तक ज़रूर ले जाना। ललित ने कहा था अंकल आपसे मिलकर बेहद अच्छा लगा है , और मैं आपकी बात याद रखूंगा। शायद कभी आप हम दोनों की प्रेम कहानी भी पाठकों तक पहुंचा दो और लोग जान सकें कि आज भी ऐसा प्यार कोई किसी को करता है। अंकल बोले थे आप दोनों बताओगे और मुझे अनुमति दोगे तो ज़रूर लिखने की कोशिश करूंगा , लेकिन ऐसा तभी हो सकता है अगर मुझे सब की हर बात की सही जानकारी हो। ललित ने कहा था कि अपनी प्रेमिका से पूछ कर बतायेगा , सम्पर्क नंबर ले लिया था , उनको दे भी दिया था।

             उन अंकल ने ही फेसबुक की बात भी की थी और बताया था कि बहुत लोग उसपर ही पहचान करते हैं दोस्त बनते हैं। मगर सावधान भी रहना सब सच नहीं होता है , आजकल झूठ बहुत है। जाने क्या सोचकर ललित ने उस दिन अपना फेसबुक अकाउंट शुरू किया था और कुछ अजनबी लोगों को दोस्त बना लिया था। उन्हीं में इक महिला भी थी आशा रानी , उनसे चैट पर बात करते ललित ने अपनी बात बता दी थी। राधिका भी चाहती है और ललित भी तो कोई दूसरा कैसे रोक सकता है आशा जी को ये समझ नहीं आया था , भाग कर शादी कर लेने की सलाह दी थी उन्होंने ललित को। ललित ने अपनी उलझन बताई थी कि अगर मेरी आंटी नहीं चाहती , राधिका के मॉम डैड नहीं चाहते , यहां तक कि जिसने ये सब शुरू किया वो राधिका की बड़ी दीदी भी नहीं पसंद करती वो कैसे सही हो सकता है।   क्या हम अपने प्यार में इतने स्वार्थी हो जायें कि बाकी सभी की भावनाओं की परवाह ही नहीं करें। ललित ने राधिका को भी फेसबुक पर आशा रानी से दोस्ती कर सलाह करने को कहा था , राधिका ने ललित की बात मान ली थी मगर ये भी विचार प्रकट कर दिया था की यूं किसी की बात को बिना समझे नहीं मानेंगे हम दोनों।  जब जो वर्षों से हमें जानते हैं वो भी नहीं समझते कि हमारी भलाई किस में है तो ऐसे फेसबुक की पहचान के लोग कुछ ही दिन में क्या समझ सकते हैं। 

           राधिका की बड़ी दीदी ज्योतिष पर यकीन रखती है , उनके पंडित जी ने ललित और राधिका की जन्म पत्री देख कर बताया है कि अभी उन दोनों के दिन ठीक नहीं हैं , जल्द ही अच्छे दिन आने वाले हैं। उन्होंने कोई पूजा करने को भी कहा है और पूजा को बुलाया है वंदना दीदी ने उनको। शायद अब भगवान ही उनको राह दिखा सकता है। राधिका के कॉलेज में उसके साथ शिक्षक पद पर नियुक्त इक दोस्त ने जब देखा कि परिवार के लोग दो प्यार करने वालों को मिलने नहीं देंगे तो उसने चुपके से उनका विवाह पास के शहर में जाकर करवा दिया था। इस बीच राधिका को अचानक पेट दर्द हुआ तो पता चला उसके भीतर इक रसोली है और ऑपरेशन करना होगा , तभी राधिका की बड़ी बहन को भी पति के कहने पर राधिका से अपने देवर के साथ विवाह पिता से करनी पड़ी क्योंकि उसको नहीं मालूम था कि ललित और राधिका अदालत में शादी कर चुके हैं। अपने पति के आदेश पर छोटी बहन की शादी अपने देवर जिसकी पहली पत्नी से तलाक हो चुका था से करने को घरवालों को मना लिया था। लेकिन राधिका ने अपनी मां को वास्तविकता बता दी थी और ललित को छोड़ किसी और से विवाह नहीं करने का निर्णय बता दिया था। वास्तविकता समझ जब पिता भी मान गये और विवाह की बात तय कर दी तो विधि का विधान ऐसे हुआ कि ललित की आंटी का देहांत हो गया और समाज की परंपरा के कारण विवाह साल भर को टल गया।  कुछ महीने बाद राधिका की ललित से सामाजिक रीतिरिवाज़ से फिर शादी हो गई थी और राधिका ने अपनी नौकरी छोड़ ललित के राज्य के इक शहर में नौकरी तलाश कर ली थी। पति पत्नी दो तीन घंटे के सफर की दूरी पर रहने लगे और सप्ताह के अंत में मिलते , आजकल की महिला खुद अपने पांव पर खड़ी रहना पसंद करती है चाहे पति की आमदनी कितनी अच्छी क्यों नहीं हो। साल बाद इक बिटिया घर पर आई तो लगा हर सपना सच हो गया है। मगर फिर अलग अलग रहते हुए दूरियां बढ़ने लगी और संबंधों में दरार आने लगी। मगर कोई भी ऐसा नहीं था जो उनकी समस्या को समझता और सुलझाता। राधिका ने अपनी फेसबुक बंद कर दी थी तीन साल बाद फिर से नई फेसबुक खोली और पुराने फेसबुक दोस्त अंकल से चर्चा की और सब हालात बताये। ये भी बताया कि ललित से रिश्ता समाप्त हो चुका है और बड़ी बहन अभी भी चाहती है उसके देवर से विवाह करवाना। कहना कठिन है कि जिसको अभी समझा जा रहा है सब सुलझ गया है कब तक ठीक है। इक मासूम भोली सी मुहब्बत को जाने कितने इम्तिहान देने हैं बाकी। शुभकामना है इस बार उसका जीवन सुखी और खुशहाल रहे। ललित की नैया अभी भी मझधार में ही है। आखिर में इक बात बताना ज़रूरी है कि प्यार में कोई एक या फिर दोनों कसूरवार हों ऐसा लाज़मी नहीं होता है। उन दो मुहब्बत करने वालों में भी बेवफा कोई नहीं मगर निभाने में कमी दोनों ही से हुई है। सवाल उनसे अधिक इक नन्हीं परी का है शायद।  

अगस्त 20, 2014

POST : 449 कौन बनेगा करोड़पति में पूछे जाने चाहिएं ये सवाल ( तरकश ) डा लोक सेतिया

    कौन बनेगा करोड़पति में पूछे जाने चाहिएं ये सवाल ( तरकश ) 

                              डा लोक सेतिया         

                         " बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते ,

                            सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते। "

             मेरी ग़ज़ल का मतला है। अब क्या बतायें कि किन लोगों के बारे सोच कर लिखा था। सब जानते हैं अब सब से अधिक सवाल कौन पूछते हैं। हर किसी से पूछते हैं कटघरे में खड़ा करके। मगर सब को आईना दिखलाने वाले खुद को नहीं देखते कभी। कभी माना जाता था कि जो बिक गया वो खरीदार नहीं हो सकता , मगर अब वही खरीदार हैं जो खुद बिक चुके हैं। इधर फिर से कौन बनेगा करोड़पति का खेल शुरू हो चुका है जिसमें सदी का महानायक और मीडिया द्वारा घोषित भगवान चौदह प्रश्न पूछ कर आपको सात करोड़ जीतने का अवसर देता है। मगर कभी किसी ने उनसे नहीं पूछा कि आप कैसे धनवान बने हैं। ये तथाकथित भगवान इतना भी नहीं जनता कि वो खुद क्या है , अभिनेता है या झूठे विज्ञापन करने वाला इक चालाक कारोबारी है जिसके लिये पैसा ही खुदा है। या फिर वो छलिया है जो अपनी मधुर वाणी से ठगता है। या जैसा उसने लोनावाला में बीस एकड़ भूमि खरीदने के लिये शपथपत्र दिया था कि वो इक किसान है। और उसको साबित करने के लिये किसी ज़माने में मित्र रहे नेता के सहयोग से उत्तर प्रदेश में जालसाज़ी कर के प्रमाण एकत्र किये थे। मगर इस महानायक कहलाने वाले का एक चेहरा और भी है , कभी ये लिखता है अपने ब्लॉग पर कि उसकी ईश्वर से ईमेल पर बात होती है। जनाब अगर थोड़ी सी मेहरबानी कर सब को भगवान का ईमेल ही दे दें तो सब लोग अपनी समस्या सीधे ईश्वर को लिख कर भेज सकें। क्या हम उसको झूठा कह सकते हैं जिसको लोग भगवान का दर्जा देते हों। हां इस बात की हैरानी ज़रूर है कि इस कलयुगी भगवान की धन हवस बढ़ती ही जा रही है , और धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि जिसके पास सब कुछ हो फिर भी और पाने की चाह हो वो सब से दरिद्र होता है। अब ऐसा मनुष्य किसी को क्या दे सकता है। इक टीवी शो आया था जिसमें सच बोलने पर इनाम दिया जाता था , मगर वो सच बहुत कड़वा होता था। महाकरोड़पति के खेल में एक दिन इस कार्यक्रम पर ऐसे ही सवाल हों और उनका जवाब वही दे जो अब तक बाकी लोगों से सवाल पूछता है। ये सच बताया जाये कि आज तक इस खेल से कितने लोगों को कितना धन मिला है और उस से कितने गुणा इनको मिला है और कितने हज़ार गुणा चैनेल को मिला है। ये भी कि ये पैसा आया किसको उल्लू बना कर है , यूं भी उल्लू बनाने की बात का विज्ञापन करने वाले भी प्रयोजक हैं इनके खेल में। जाने कैसी राह दिखाना चाहते हैं ये लोग , क्या ऐसे ही गरीबी दूर हो सकती है सब की , बेशक इनकी होती है मगर अभी और कितना चाहिये इनको। ये अपनी तरह का ढंग है लोगों से छीनने का एस एम एस का जाल बिछा कर। अंत में किसी शायर के चंद शेर इनके नाम।

                            " इस कदर कोई बड़ा हो हमें मंज़ूर नहीं ,
                      कोई  बन्दों में खुदा हो हमें मंज़ूर नहीं।

                   रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की अगर ,
                      चांद बस्ती में उगा हो हमें मंज़ूर नहीं।

                     मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना ,
                     आपकी एक अदा हो हमें मंज़ूर नहीं। "

 

अगस्त 08, 2014

POST : 448 काठ की हंडिया कब तक चढ़ती रहेगी ( तरकश ) डा लोक सेतिया

 काठ की हंडिया कब तक चढ़ती रहेगी ( तरकश ) डा लोक सेतिया

           इक नायक है देश का दूसरा सदी का महानायक कहलाता है। नायक अच्छे दिन लाने वाला है महानायक सब को करोड़पति बनाना चाहता है। दोनों की जोड़ी खूब है जय-वीरू की जोड़ी की तरह। अब देश में सब कुछ सही हो जायेगा। नायक जो मांगता था उसको वो मिल गया है लोकसभा में पूर्ण बहुमत। महानायक के पास तो पहले से सभी कुछ है , कुछ लोगों ने उसको भगवान तक घोषित कर रखा है। नायक कभी चाय बेचता था , खुद गरीब रहा है , उसको पता है भूख-बेबसी क्या होती है। ये महानायक भी बहुत फिल्मों में गरीबों का हितेषी वाला किरदार बखूबी निभा चुका है। आनंद फिल्म में बाबू-मोशाय इक डॉक्टर है जो जानता है कि देश में गरीबी है भूख है कुपोषण है। ऐसे ही किरदार निभाते निभाते महानायक उस जगह जा पहुंचा है जहां उसको कुछ मिंट का विज्ञापन करने के लिये ही करोड़ों मिलते हैं। पहले भी कई बार वो लोगों को करोड़पति बनने का सपना बेच चुका है। वो बताता है कि एसएमएस करो अपनी तकदीर बदलने के लिये , कुछ आसान से सवालों का जवाब ही तो देना है। पिछली बार उसने दावा किया था बहुत लोगों की तकदीर बदलने का। हर सवाल के बाद पूछता था हॉट सीट पर बैठे व्यक्ति से कि ये रकम उसके लिये क्या मायने रखती है। लगता था गरीबी का उपहास उड़ा रहा हो , दिखलाता था मानो दानवीर है और भीख दे रहा है। प्रतिभागी लोगों ने उनसे कई बातें पूछी हैं केवल यही नहीं पूछा कि इस केबीसी का सच क्या है। इसने किसको कितना अमीर बनाया है और किस किस से कितना लूटा है सपनों का जाल बिछा कर। मगर क्या किया जाये इधर परोपकार ऐसे ही किया जाता है , जितना देते हैं या देने का दावा करते हैं उस से कई गुणा खुद अपनी जेब में आ जाता है। सब से बड़ा कारोबार है अब समाज सेवा भी। अगर इस बार केबीसी में कोई एपीसोड इसको लेकर हो कि अब तक वहां कितने लोगों को करोड़पति बनाया गया है , लोग कितनी राशि जीत कर ले गये हैं और उस से कितने हज़ार गुणा कौन मुनाफा कमा गया है। इक वो भी थे जो कहते थे कि " देनहार कोऊ और है देत रहत दिन रैन , लोग भरम मोपे करें याते नीचे नैन " और इक ये हैं जो लोगों से छीन कर बहुत धन बहुत चालों से , उसमें से नाम मात्र का देकर दानवीर कहलाते हैं। और वो जो अच्छे दिन लाने की बात करते थे अब राजसी जीवन जी रहे हैं , उनका पूरा ध्यान अपना वर्चस्व बनाये रखने पर है।  जनता के पैसे से वो भी खूब मनमानी करने लगे हैं , ये भुला कर कि लोग किस दशा में हैं। लगता है उन्होंने ने भी देश की जनता की समस्यायें भगवान भरोसे छोड़ दी हैं , गरीबों की अब कोई बात नहीं की जाती। वही दलगत राजनीति , वही वोटों का गणित , वही अपनी सत्ता का विस्तार प्रमुख बन गये हैं। सत्ता मिलते ही चाय बेचने वाला जनता का धन उपयोग कर राजसी पूजा में शामिल होकर करोड़ रुपये की चंदन की लकड़ी दान कर आता है बिना सोचे कि उसको इस धन की रखवाली करनी है , ये उसकी विरासत नहीं है जिसको दिल खोल कर लुटा सके। ये कोई धर्म नहीं है। नायक के भाषण में और महानायक की बातों में अच्छी लगने वाली बातें क्या सच में अच्छी हैं या झूठ और छल को किसी आवरण से ढक दिया गया है। जो भी हो संसद में वही जंग जारी है , काठ की तलवारों वाली।

अगस्त 03, 2014

POST : 447 जश्न आज़ादी का ( तरकश ) डा लोक सेतिया

         जश्न आज़ादी का ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

            नेता जी सलामी ले रहे थे। ऐसे चल रहे थे मानो कोई ठेल रहा हो। कदम थे कि उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे। देश के विकास की तरह गति थी। सुरक्षा कर्मी उनको हिदायत दे रहा था कि लाल कालीन पर ही चलना है। नेता जी देश को सही दिशा में ले जाने और विकास करने की बात दोहरा रहे थे भाषण में। पूरा देश छुट्टी मना रहा था। हम भी टीवी पर वही तमाशा देख रहे थे। घर से बाहर निकले तो एक रिक्शा वाला नज़र आया , हमने उसको बुलाया तो वो वो हमारे पास चला आया। हमने पूछा तुम्हारा नाम क्या है। "भारत नाम है मेरा साहिब " बताया उस फटेहाल ने। नाम सुनकर अच्छा लगा , वास्तविक पहचान लगी , महान लगा। हमने उसको प्यार से कहा , भारत तुम आज़ाद हो , आज आज़ादी का दिन है आज तो छुट्टी मनाओ , आज जानवरों की तरह बोझा न ढोवो। वो कहने लगा अरे बाबू ज़रा ये तो बताओ कि हमें किस बात की आज़ादी है। अगर छुट्टी मनायेंगे तो शाम को घर का चूल्हा कैसे जलेगा , पूरा परिवार भूखा सोयेगा रात को आज के दिन।

     ये आज़ादी का जश्न मनाना तो उन लोगों का चोंचला है जिनको पेट भरने की चिंता है न रहने की कोई समस्या। वो भले कोई काम नहीं करें फिर भी ठाठ से रहते हैं। जनता के पैसे से राजसी ठाठ से रह गरीबी पर भाषण देते हैं हर बार। ये घोटाले करें , लूट मार करें , अपराधियों से गठजोड़ करें इनको आज़ादी है। ये वोट लेने के लिये हमको झूठे वादे करें , प्रलोभन दें कि अगर हमारी सरकार बनी तो क्या क्या मुफ्त में बांटेगे , कोई इनसे सवाल नहीं करता कि ये सब आपका दल देगा , आपके नेता देंगे अपने पास जमा की हुई लूट की दौलत से या जनता का सरकारी धन बर्बाद करेंगे अपनों को खुश करने को। चुनाव आयोग को क्या नज़र नहीं आता ये अनुचित ढंग से वोटर को ललचाने का तरीका। सतसठ साल में इनसे इतना भी नहीं हुआ कि देश की दो तिहाई जनता को दो वक़्त रोटी ही मिल सकती , और हर दिन देश का धन बर्बाद करते रहते हैं ऐसे ही समारोहों पर आयोजनों पर। कसके लिये है ये जश्न , क्या उनके लिये जो आज भी गरीबी की रेखा से नीचे हैं। यही पैसा उनको बुनियादी सुविधायें देने , उनकी शिक्षा , स्वस्थ्य आदि पर खर्च होता तो बेहतर था।

           हमने कहा भारत तुम कहते तो ठीक हो फिर भी तुम आज तो मिठाई खाना क्योंकि आज ही के दिन हमने विदेशी गुलामी से मुक्ति पाई थी। वो बोला क्यों उपहास की बात करते हो बाबू , रोटी खाने को पैसे नहीं हों , घर में आटा दाल चावल कुछ भी नहीं हो , बच्चे बीमार हों तब मैं सब को भुला कैसे मिठाई खा लूं। ये तो नेता लोग ही कर सकते हैं कि जनता की हालत जो भी हो इनको शाही शानो-शौकत से रहना है। हमने कहा हे मूर्ख जब ख़ुशी मनानी हो जश्न मनाना हो तब सब समस्याओं को भुला क़र्ज़ लेकर भी मिठाई खा लेते हैं। देश पर अरबों रुपये का क़र्ज़ है , लोग भूखे हैं , बेघर हैं , बेरोज़गार हैं ,उग्रवाद है , विपतियां हैं , दुर्घटनायें हैं तब भी सरकार नित नया जश्न मनाती रहती है। नई आर्थिक नीति लागू है जिसमें इंसान इंसान नहीं हैं उपभोक्ता है , कम्पनियों से लेकर सरकारों तक के लिये। तुम भी अपना ढंग बदल लो और नये ज़माने के साथ कदम से कदम मिला कर चलो। रिक्शा वाला हमें वहां ले आया था जहां सरकारी समारोह चल रहा था।

                                       धूप में , गर्मी में स्कूली छात्र छात्रायें कर्यक्रम की शोभा बढ़ा रहे थे , मनोरंजक प्रस्तुति देकर। नेता अफ्सर , खास लोग ताली बजा रहे थे , शामियाने में छांव में बैठ कर आनंद लेते हुए , शीतल पेय का पान करते हुए। मगर जो बच्चे घंटों से धूप में , गर्मी में प्यास से व्याकुल थे उनको हिलने तक की आज़ादी नहीं थी। ऐसे में इक बच्ची बेहोश होकर गिर गई थी , उसको छाया में ले जाया गया और पानी पिला होश में लाया गया। अध्यापक उसको ऐसे देख रहा था मानो उसने कोई अपराध किया हो। उसको घर वापस जाने को कह दिया गया , उसको आज़ादी का सबक याद करवाना था , उसको आज़ादी तो नहीं थी। अब चौदह नवंबर को उसकी बात होगी , फिर किसी दिन मानव अधिकारों की भी बात होगी , आज उस सब का कोई मतलब नहीं था। परेड के बाद रेवड़ियों की तरह ईनाम - पुरुस्कार वितरित किये गये , तालियां बजाई गईं , जन-गण-मन गीत गाया गया।

                                    कुछ मज़दूर जो कई दिन से समारोह की तैयारी में दिहाड़ी पर लगे हुए थे , समारोह की समाप्ति पर फिर सब ठीक पहले सा करने के काम पर लग गये। उनको कई दिन की बकाया मज़दूरी मिलने की उम्मीद थी , मगर उनको बताया गया कि आज छुट्टी का दिन है उनका पैसा आज नहीं दिया जा सकता। वो आज भी प्रशासन के सामने हाथ जोड़े खड़े थे , अपने हक की भीख मांगते। उनकी गुलामी का अंत अभी भी नहीं हुआ है , साहूकार , मिल मालिक , ज़मीदार सब आज भी उसको बंधक बनाये हुए हैं। उधर सरकारी बाबू अधिकारी को बता रहा है कि कितना पैसा खर्च हुआ और कितना बचा लिया है मिल बांट कर खाने को। सब  कर्मचारी - अधिकारी अपना हिस्सा लेकर जा रहे हैं ताकि अपने परिवार के साथ आज़ादी का जश्न मना सकें , फिर जाने कब ऐसा अवसर मिलेगा छुट्टी मनाने का। बाहर सड़क पर  पुलिस वाले लोगों को रोके खड़े हैं , मंत्री जी का काफिला जो गुज़रना है। कोई भूले से उधर से जाने की कोशिश करे तो डंडा चलने को तैयार है। मंत्री जी की सुरक्षा भारी है आम जनता की आज़ादी पर।

( ये मन घड़ंत नहीं है , ऐसा देखा है खुद अपनी नज़र से। शायद हर जगह हर साल दोहराया भी जाता है )

जुलाई 31, 2014

POST : 446 मेहरबानी दोस्त मुझे याद रखा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

  मेहरबानी दोस्त मुझे याद रखा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कब सोचा था
कभी सच होगा ये सपना भी
किसी को यूं ही किसी दिन
आयेगा ये भी ख्याल
कि जाने कहां खो गया
कोई दोस्त कई दिन से
और वो चला आयेगा
मेरे घर में पूछने हाल मेरा ।

लोग कहते हैं
आज के नये दौर में
भला किसे फुर्सत है
जो सोचे किसी दूसरे के लिये ।

मगर फेसबुक के दोस्तों में भी
मुझे रही है तलाश ऐसे ही
दोस्त की जो रखे याद ।

वो बात जो कही थी हमने
दोस्त बनते समय कि
हम हैं इक घर के सदस्य
जो रहते हैं बेशक दूर
मगर होता है एहसास
उनके करीब होने का ।

मेहरबानी
मेरे फेसबुक के दोस्त ।



जुलाई 30, 2014

POST : 445 नियम-कानून लागू कब होते हैं ( आलेख ) डा लोक सेतिया

 नियम कानून लागू कब होते हैं ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

आज इक खबर छपी है शाम के अखबार में। हरियाणा सरकार ने फतेहाबाद नगर में जो सरकारी भूमि दो संस्थाओं को देनी है वो कलेक्टर रेट पर दी जायेगी और इस शर्त पर कि उसका उपयोग वाणिजयक कार्य के लिये नहीं किया जा सकेगा। ये सही बात है , मगर सवाल और भी है कि पहले जिन जिन को सरकार ने भूमि दी थी धर्मशाला बनाने के लिये क्या उन पर भी यही शर्त लागू थी। ज़रूर ये शर्त तब भी रही होगी , मगर क्या इसका पालन किया गया। हुआ ये कि तब धर्मशाला बनाने से पहले ही वहां मार्किट बना दी गई , और धर्मशाला भी कैसी जिसमें कोई मुसाफिर बिना कमरे का किराया दिये रात भर नहीं रुक सकता। जब संत महात्मा तक धर्म प्रचार के नाम पर कारोबार करने लगे हों तब बाकी समाज से क्या उम्मीद की जाये। धर्म खुद लोभ लालच के जाल में भटक रहा है। यहां एक सवाल और भी है कि क्या सरकार का समाजिक कार्य के लिये भूमि देना जनहित की बात है अथवा वोट बैंक का मोह। क्योंकि जब इन दोनों संस्थाओं को भूमि आबंटित होने की बात हुई थी तब संस्थाओं वाले सत्ताधारी नेताओं का आभार प्रकट कर रहे थे और उपकार मान रहे थे जैसे कि भूमि वो अपनी निजि दे रहे हों। अगर देश समाज को गलत दिशा में जाने से रोकना है तो ये तय करना होगा कि जिस भी संस्था को जो भूमि जिस काम के लिये दी जाये और जिन शर्तों पर उसका वही उपयोग ही हो। अगर कोई दुरूपयोग करे तो उसको रोका जाये। क्या सरकार तैयार है इसके लिये कि जो सरकारी भूमि को धर्मशाला बनाने को लेकर वाणिजयक उपयोग कर रहे हैं राज्य भर में , उनपर कठोर करवाई हो , उनके अनुचित उपयोग को बंद करवाया जाये। या फिर यहां भी वही दोहराया जायेगा।
       देश में सरकार अर्थात सत्ताधारी नेता अपनी साहूलियत से नियम कानून ताक पर रख लेते हैं। सरकारी विभाग अपने मास्टर प्लान में बदलाव कर पार्क की जगह संस्थाओं को आबंटित करते हैं , बाज़ार की कीमती ज़मीन किसी को धर्मशाला बनाने को दे देते है और उस का उपयोग दुकानें बनाकर किया जाता है। कोई कानून ऐसे ख़ास लोगों के समाजिक कार्य की जगह किराये की दुकानें बनाने को रोकता नहीं है। मगर कोई अपने घर या कमर्सिअल स्थान में अपनी खुद की जगह में नक्शे में बदलाव करते हैं तो कीमत से बढ़कर जुर्माना लगा दिया जाता है।  क्या नियम आम नागरिक पर लागू किये जाने को ही बने हैं , खुद नियम लागू करने वाले किसी नियम का पालन नहीं करते। हर आम आदमी ये देख कर बेबस महसूस करता है , कहीं कोई कानून नहीं पालन करवाने वाले सरकारी विभाग के अधिकारी जब चाहे उस पर कोई भी आरोप लगा देते हैं। तीस चालीस साल बाद नक्शा पास करवाने की बात क्या उचित है। सरकारी विभाग बदल गए और नियम कानून भी , ऐसे में पचास साल पहले किसी विभाग द्वारा बेचे प्लाट पर जो विभाग बनाया ही उस की बोली के दस साल बाद हो और इमारत निर्माण होते समय उस एरिया पर उसका नियम लागू ही नहीं हो , जब भी मर्ज़ी नोटिस देकर परेशान करते हैं वो भी तमाम लोगों को नहीं किसी एक को चुनकर जो विभाग को जनहित में उसी के प्लॉट्स और फुटपाथ पर अवैध कब्ज़े करने वालों की सूचना देता हो। ये तो अपने पद और विभाग के नियम कानून की आड़ में उसे तंग करना है जो विभाग को उसी के प्लॉट्स पर अवैध कब्ज़े की जानकारी देता है , अधिकारी विभाग के प्लॉट्स फुटपाथ पर सड़क पर कब्ज़ा करने वालों को कुछ भी कहता मगर अपने प्लाट में बनाये निर्माण पर तीस साल बाद नोटिस भेजता है।
                 किसी भी समाज में सरकार और विभाग इस तरह काम नहीं कर सकते हैं। किसी को सब माफ़ और किसी को किसी भी तरह सज़ा देना सच बताने पर। 

 

जुलाई 21, 2014

POST : 444 झूठ से दोस्ती नहीं करते ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

झूठ से दोस्ती नहीं करते ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

झूठ से दोस्ती नहीं करते
हम कभी बस यही नहीं करते ।

इक खुदा ने सवाल पूछा है
आप क्यों बंदगी नहीं करते ।

साथ जीना है साथ मरना भी
बस तभी ख़ुदकुशी नहीं करते ।

बेवफ़ा हम उन्हें कहें कैसे
बेवफ़ाई वही नहीं करते ।

आज कहने लगे हमें आकर
आप क्यों आशिक़ी नहीं करते ।

क्यों बुलाते हो तुम रकीबों को
यार से दिल्लगी नहीं करते ।

याद "तनहा" उन्हें ज़माना सब
बात पर आपकी नहीं करते । 
 

 

मई 19, 2014

POST : 443 दर्द-ए-ग़ज़ल ( एक खत ग़ज़ल का ) { तीरे-नज़र } डा लोक सेतिया

 दर्द-ए-ग़ज़ल ( एक खत ग़ज़ल का ) { तीरे-नज़र } डा लोक सेतिया

मुझे चाहने वालो , मेरा सलाम। तुम मुझे बेहद चाहते हो , मेरे दीवाने हैं दुनिया भर में तमाम लोग। मुझे नाज़ है उन सब पर जिनको इश्क़ है मुझसे। मगर जाने क्यों ये कुछ नासमझ लोग मेरे साथ इक खिलवाड़ करने लगे हैं। और कहते हैं कि मेरे चाहने वाले हैं। मैं बेहद नाज़ुक हूं , मेरी सुंदरता मेरे स्वभाव की कोमलता , हर बात कहने के मेरे अपने सलीके और सभी को लुभाने वाले मेरे अंदाज़-ए-बयां में है। मेरे रंग रूप को जैसे चाहो वैसे बदलोगे तो मेरी सारी कशिश ही समाप्त हो जायेगी। मेरे साथ इस तरह छेड़खानी करने वाले मेरा नाम ही बदनाम कर देंगे। मैं तो उन शायरों की विरासत हूं जिन्होंने पूरी उम्र साधना करके मुझे सजाया , संवारा और निखारा है। मगर आजकल तो मुझे जाने समझे बिना ही हर कोई दावा करने लगा है कि मैं उसी की हूं। इनमें से कितने तो इतना भी नहीं जानते कि मेरा नाम ग़ज़ल क्यों रखा गया है , वे क्या मुझे समझेंगे और कैसे मुझे अपना बनायेंगे। हमेशा से मैं सभी का दर्द बयां करने का माध्यम रही हूं , मगर आज मुझे कोई नहीं नज़र आता जो मेरे दिल का दर्द दुनिया को बता सके। मैं किसके पास जाऊं इंसाफ मांगने , है कोई मुंसिफ जो उनको सज़ा दे सकता हो जो खेल रहे हैं मेरी अस्मत के साथ बार बार। मुझे क़त्ल करने वाले , मुझे खून के आंसू रुलाने वाले खुद को शायर बता रहे हैं। ये देख मुझ पर क्या बीतती है कौन समझेगा। इस खत से पहले भी मैंने कुछ खत लिखे थे उन शायरों के नाम जिन्होंने मुझसे मुहब्बत ही नहीं की , जो तमाम उम्र मेरी इबादत करते रहे।ग़ालिब , दाग़ , जिगर जैसे मुझे दिलो जान से चाहने वाले लोग। उन लोगों ने कभी भी मेरी नफासत को दरकिनार नहीं किया , मेरी खुशबू को मेरे मिजाज़ को हमेशा बचाये रखा। वो जानते थे बेहद नाज़ुक हूं मैं , छूने भर से मुरझा सकती हूं , उन्होंने मेरा एहसास अपनी रग रग में , अपनी हर सांस में भर लिया था। काश मुझे चाहने वाले वो शायर आज फिर से आ जायें और मैं खुद को उनकी आगोश में छिपा लूं।

                        ये खत भेजा है ग़ज़ल ने मुझे , मेरे नाम अपने सभी चाहने वालों के नाम। इस पर कोई नाम नहीं लिखा हुआ है , ये सभी ग़ज़ल को चाहने वालों के नाम है इक संदेश। पढ़कर परेशान हो गया हूं मैं , करूं तो क्या करूं , ग़ज़ल के इस दर्द को जाकर किसको समझाऊं और किस तरह। आज के लिखने वाले तो बड़े ही बेदर्द हो गये हैं।
"ग़म ज़माने के लिखते रहे उम्र भर , खुद जो एहसास-ए-ग़म से भी अनजान थे"।
हमसे कई बार भूल हो जाती है , जिसको फूल सा कोमल मान लेते हैं वो पत्थर सा कठोर होता है। आशिक़ भी प्यार में जब प्रेमिका को ग़ज़ल नाम दे बैठते हैं तो बाद में पछताते हैं जब उनकी कविता का रूप पहले सा नहीं रहता।

        "खुद ग़ज़ल हैं वो हमारे दिल की , क्या भला और सुनायें उनको"।

ग़ज़लकार ये अनर्थ कर बैठते हैं , अपनी महबूबा को ग़ज़ल नाम देना अर्थात उसको महफ़िल के हवाले कर देना। हर कोई उसकी तारीफ करे और उसको चाहने लगे ये देख कर खुद जलन होने लगती है। हर कोई समझता है उसी का अधिकार है ग़ज़ल पर बाकी तो कहने को ग़ज़ल कह रहे हैं। ग़ज़ल इक खूबसूरत ख़्वाब है। शायर हर बार सोचता है कि आज जो ग़ज़ल सुनाने जा रहा है वो लाजवाब है , मगर मुशायरे में सुनाने के बाद फिर सोचता है अगली ग़ज़ल ऐसी शानदार लिखेगा कि सब वाह वाह कर उठेंगे। ग़ज़ल का अंदाज़ कहां सभी को आता है , तभी तो कहा था ग़ालिब ने कि , है ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयां और।

                 मैंने भी अपने दिल में ग़ज़ल की इक दिलकश सी तस्वीर बना राखी थी। आज जब मेरे सामने आई तो देख कर हैरान हो गया हूं , मैंने पूछा था ग़ज़ल से ये क्या हाल बना रखा है तुमने प्रिय। सुन कर रोने लगी थी अपनी दुर्दशा पर। बोली , देख लो छापने वाले ने मेरी कैसे दुर्गति की है , इससे तो बेहतर होता बिना छापे लिखने वाले को वापस ही भेज देता। इस तरह छपा देख कर मुझे लिखने वाले के दिल पर क्या बीत रही है ये वही जानता है या मैं समझती हूं। उस पर ये प्रकाशक मानता होगा कि उसने कोई उपकार किया है छाप कर। उसके लिये ग़ज़ल में या कुछ और छापने में कोई अंतर नहीं है , उसको किसी तरह जगह भरनी है , कुछ भी परोसना है पढ़ने वालों को। ग़ज़ल कहने लगी आजकल ग़ज़ल संध्या के नाम पर तमाशा किया जाता है , गाने वाले ऐसे गाते हैं कि वो सहम कर रह जाती है। ये गायक इतना भी नहीं जानते कि मुहब्बत या इबादत और बात है और किसी को ज़बरदस्ती अपना बनाना दूसरी बात। इक दर्द ये भी है ग़ज़ल का कि सभाओं में उसके शेरों को गलत ढंग से सुनाया जाता है बिना उसका अर्थ जाने , तालियां बटोरने के लिये। शायरी का ये क़त्ल उससे देखा नहीं जाता। बड़ा ही अनाचार होने लगा आजकल ग़ज़ल के साथ , उसपर हो रहे ज़ुल्म की शिकायत मैं जाकर किस से करूं। कौन उसको बचाये उनसे जो ग़ज़ल की आबरू तार तार करने पर तुले हैं। ग़ज़ल को बचा लो , कहीं बेमौत न मर जाये ग़ज़ल। कर सको तो ग़ज़ल के इस दर्द को आप भी दिल की गहराई से महसूस करो। आपकी पलकों पर अगर दो आंसू आ जायें ग़ज़ल का दर्द सुनकर तो समझना कि आप भी शामिल हैं ग़ज़ल के चाहने वालों में। 
 

 

मई 16, 2014

POST : 442 आशिक़ी का जुनून है ( अनकही ) डॉ लोक सेतिया

        आशिक़ी का जुनून है   ( अनकही ) डॉ लोक सेतिया

       किसी दिन हम अपनी कहानी लिखेंगे ,  हम अपनी प्यास को तब पानी लिखेंगे । 

जब किसी को आस पास कहीं से भी प्यार नहीं मिलता तब वो अपनेपन को तरसता है और जब भी कोई दो बोल प्यार के बोलता है तब उसी का होकर रह जाता है और रहना चाहता है जीवन भर को लेकिन उम्र भर समझ नहीं पाता कि सपनों की बातें वास्तविक जीवन में हक़ीक़त नहीं बनती हैं । घड़ी दो घड़ी पल दो पल या कुछ दिन साल महीने का साथ सभी निभाते हैं और अचानक किसी मोड़ से राहें अलग अलग हो जाती हैं । कुछ लोग नासमझ नादान होते हैं और अपनी नादानियों से प्यार करते हैं बचपन से लेकर बड़े होने तक खोये रहते हैं पुरानी यादों में जो ख़्वाब ही थे वास्तविकता कभी नहीं बने ये बात ऐसे लोग मानते ही नहीं । बस जहां जो भी प्यार से मिला उसी के हो जाते हैं और दिल में बसाते हैं उनको दिल से निकालते नहीं कभी भी भले समझाते हैं अनुभव कि कोई किसी का हमेशा को होता नहीं है यही दुनिया का चलन है । जिनको चाहा दिल में जगह दी उनको पराया समझना उनको नहीं आता कभी भी । कोई दोस्त कोई अन्य किसी रिश्ते से जुड़ जाता है ये सिलसिला चलता रहता है ज़माने की तरह कोई दूसरा मिल गया तो पहले जितने संगी साथी थे उनको छोड़ना आदत नहीं होती कुछ लोगों की । कितने सालों बाद फिर से अचानक पुराने लोग मिल जाएं तो यूं लगता है कभी जुदाई आई ही नहीं , दुनिया को गिले शिकवे शिकायत याद रहते कुछ विरले ही लोग होते हैं जिनको सिर्फ दोस्ती प्यार अपनापन और जिस जिस ने जैसे जितना साथ निभाया बस वही रहता है याद । 

मन की बातें कभी किसी से कहना नहीं आता हर किसी को वक़्त की धारा संग बहना नहीं आता । भूले से कभी दिल में कुछ आये भी तो दिल को समझा लेते हैं सब को दर्द की दौलत भी कहां नसीब होती है । ज़िंदगी के सफ़र में ग़म ही तो साथ निभाते हैं खुशियां कब रहती है हमेशा टिककर । क्या हुआ जो दिल बार बार टूटता रहा ये तजुर्बा भी कोई थोड़ा तो नहीं जिस ने दामन छुड़ाया उसको नहीं मना सके पर कभी हाथ पकड़ कर  छोड़ा तो नहीं । किसी भी किताब पर किसी पन्ने पर इक अपना ही नाम नहीं लिखा रहता पलटते हैं ज़िंदगी की किताब के पन्ने तो हर पन्ने पर कोई नया कभी फिर से वही पुराना कोई नाम शक़्ल सूरत बदल दिखाई देता है । हर अध्याय कुछ और कहानी कहता है कोई सामने नहीं होता फिर भी बंद कमरे में रहता है कोई तो है जो शायद इस दुनिया में नहीं है तब भी अपने दुःख दर्द समझता है पीड़ा को सहता है । कभी नहीं सोचा न कभी जाना ज़माना पागलपन दीवानगी कहता है । सपनों का खूबसूरत महल ज़ेहन में रहता है कभी नहीं ढहता है कौन परायों को अपना समझता है चले आओ या मुझे बुला लो बार बार कहता है । कभी कोई खिड़की कभी कोई दरीचा कभी छत का कोई कोना कभी बारिश कभी तपती गर्मी कभी यूं ही किसी शाम किसी के साथ कितनी यादें जुड़ी को सीने में सबसे छुपाए रखते हैं । जिनको नहीं वापस लौटना उनकी आस लगाए रखते हैं शाम की सैर वो बहता पानी दो किनारे लंबे होते साये हमेशा याद रखते हैं । 

कभी अपनी मुहब्बत की रुसवाई नहीं करते सितम करने वाले को हरजाई नहीं कहते । सब की अपनी कोई मज़बूरी थी बस और कोई नहीं दूरी थी । कुछ ख़त लिखे थे कुछ मिले थे सभी को हमेशा को जाने कब कहां रख दिया कि ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे किसी को खुद को भी नहीं । अपने देखा है एकांकी नाटक जिस में बस इक किरदार सामने रहता है बाक़ी सभी कल्पना से निर्मित होते हैं दर्शक को अनुभव होता है कितने और हैं मगर सब काल्पनिक होता है । ऐसे ही कुछ लोग जिनको कोई नहीं मिलता कोई बात तक नहीं करता कोई देखता नहीं किस तरह अकेलेपन को झेलता है कोई शख़्स अपने लिए इक ख्याली दुनिया बसा कर जीते हैं दुनिया को पता ही नहीं चलता कि उनकी कहानी में कोई भी वास्तविक किरदार नहीं रहा सपनों में जीने की आदत क्यों कैसे किसी को पड़ जाती है क्या पता शायद ज़िंदा रहने को कोई और तरीका उनको सूझता नहीं है तो खुद से अपने आप से बातें करते हैं , कभी झगड़ते हैं खुदी से कभी खुद को मना लेते हैं । हर रस्म निभा लेते हैं ख्वाबों को सजा लेते हैं । जिन का कोई वजूद नहीं कुछ होते हैं उनसे नाता बना लेते हैं निभा लेते हैं तन्हाई में उन बातों से खुद को बहला लेते हैं मुहब्बत से मुहब्बत का कहां सब लोग सिला देते हैं ।
 
 

     

    

मई 15, 2014

POST : 441 जब चले जायेंगे मेले के दुकानदार ( तरकश ) डा लोक सेतिया

जब चले जायेंगे मेले के दुकानदार  ( तरकश ) डा लोक सेतिया

          मेला कुछ दिन का ही होता है , जब कहीं मेला लगा हो तब वहां बहुत चहल पहल होती है , भीड़ होती है , शोर-शराबा होता है। मगर जब मेला खत्म हो जाता है तब वहां का मंज़र ही और होता है। मेले में सब कुछ मिलता है , खेल-तमाशा भी होता है और खाने-पीने से लेकर सभी तरह का सामान भी बिकता है। मेले में सामान बेचने वाले दुकानदार भी अपनी तरह के ही होते हैं। पीतल पर सोने की पालिश किये गहने मेले में असली सोने के गहनों से भी सुंदर दिखाई देते हैं। मेले भी कई तरह के होते हैं , कभी गांव में हर साल लगता था मेला। मेला नाम की फिल्म भी बनी थी शायद दो बार , बहुत सारी फिल्मों की कहानी मेले से ही शुरु होती रही है।  मेले में दो भाईयों का बिछुड़ना , ये कीतनी बार देखा है फिल्मों में। मेला देखने का शौक बच्चों से लेकर बूढ़ों तक हमेशा होता ही है। माशूक़ा महबूब से मिलने मेले में जाती है और आशिक़  से मेले से चांदी का छल्ला दिलवाने को कहती है , कहानी में। ये और बात है कि इधर प्यार  मॉल में कितनी मंज़िल ऊपर  चढ़ता है महंगे उपहार की खरीदारी से लेकर फ़िल्म देखने खाने पीने पर महीने भर की कमाई खर्च करवाता है।

      राजधानी दिल्ली में तो प्रगति मैदान इक जगह ही मेलों के लिये है , जहां हर दिन कोई न कोई मेला लगा ही रहता है। करीब दो महीने से देश में भी इक मेला लगा हुआ है , चुनाव का , लोकतंत्र का मेला। इसमें भी बहुत कारोबारी करोबार करते नज़र आ रहे हैं। नेता , राजनैतिक दल ही नहीं टीवी चैनेल से लेकर अखबार वाले तक सब का धंधा चोखा चल रहा है।  कई तो इतना कमा जाएंगे कि फिर बहुत दिन आराम से बैठ कर खाते रहेंगे। सबकी दुकानें सजी हुई हैं , दिन-रात उनका माल बिक रहा है मुंह मांगे दाम पर। कोई मोल भाव की बात नहीं करता , उनके पास फुर्सत कहां है इसके लिये। लेना हो तो लो वर्ना आगे बढ़ो , भीड़ मत करो ऐसा कहते हैं। बस खत्म होने को है ये मेला , देश की जनता मस्त रही बहुत दिन इस मेले में। अब देखते हैं कि मेले के बाद क्या मिलता है देश को आम जनता को। आपने कभी तो देखा होगा उस जगह का नज़ारा जहां लगा हुआ था कोई मेला दो दिन पहले , वहां लगता है जैसे कोई तबाही हुई हो।  अभी तलक देश की जनता को भी वही मिलता रहा है , इस बार क्या होगा , देखना है। अच्छे दिन ढूंढते ढूंढते थक गए और मिले भी तो बदहाली के दिन नसीब की बात है। तब राज़ खुला अच्छे दिन जुमला था सच में कोई अच्छे दिन मिलते नहीं जनता को अच्छे दिन उन्हीं के होते हैं जिनकी सत्ता सरकार होती है।

                     मेले से लोग जिस वस्तु को सस्ता समझ खरीद लाते हैं , जब वो दो ही दिन में बेकार हो जाती है तब समझ आता है कि महंगा रोये एक बार सस्ता रोये बार बार। मेले से खरीदे सामान की कोई गारंटी नहीं होती है न ही उसको बदला या वापस किया जा सकता है। कभी कभी शहर के बाज़ार में भी सेल लगती है भारी छूट पर बाकी बचे सामान की , तब उसपर भी मेले वाले बाज़ार के नियम लागू होते हैं। मेला कोई भी हो हर दुकानदार मुनाफे में रहता है। चुनाव के मेले में भी सब नेता , सभी दल फायदे में ही रहते हैं , चाहे सत्ता मिली हो चाहे गई हो हाथ से। इतने साल घोटालों में लूट की ये सज़ा कुछ भी नहीं। लेकिन चुनाव के इस मेले से आम लोग अपना बहुमूल्य वोट देकर जो जो वादे , उम्मीदें लेकर आये हैं वो सच साबित हों इसकी कोई गारंटी नहीं है। न ही आपकी पूंजी , आपका वोट आपको फिर वापस मिल सकता है , जिसको दिया वो पांच वर्ष तक उसी का ही है। चुनाव जीत कर नेता बाकी सब भूल कर सत्ता की दौड़ में शामिल हो जाते हैं , कल जो विरोधी थे आज सहयोगी बन जाते हैं। बहुमत की चिंता , सब को खुश रखने की बात , किसको क्या क्या मिले ये ही मकसद बन जाता है। सत्ता और शासन का चरित्र कुर्सी का चरित्र ही होता है , कुर्सी वहीं रहती है , उसपर बैठने वाले बदलते रहते हैं। जब लोग कुर्सी पर आसीन व्यक्ति को सलाम करते हैं तो वे वास्तव में कुर्सी को ही सलाम कर रहे होते हैं।

                   सवाल यही है , कि पहले की तरह इस बार भी क्या सत्ताधारी दल का नाम और कुर्सियों पर बैठने वाले नेताओं के नाम ही बदलेंगे या सच में कुछ बदलाव भी देखने को मिलेगा। क्या शासन का तौर-तरीका भी बदलेगा , या अब भी नेता शासक बन कर दाता और जनता याचक बनी रहेगी। क्या जनता मालिक की तरह अपना अधिकार पा सकेगी , क्या आज़ादी के सतसथ वर्ष बाद कुछ बदलेगा।  क्या सच अच्छे दिन आयेंगे। क्या वो हालत नहीं रहेगी कि जनता की थाली मात्र चंद रूपये की और सत्ताधारी लोगों की हज़ारों रूपये की। क्या योजना आयोग का शौचालय लाखों का और जनता को खुले मैदान में या किसी रेल की पटड़ी किनारे जाने का अंतर नहीं रहेगा। क्या जो जो नेता चुनाव में जनता की समस्यायें हल करने , उसको न्याय देने , सुरक्षा देने की बातें भाषण में कह रहे थे वे अपनी बात याद रखेंगे , या सब भुला कर खुद अपने लिये सुख सुविधा , सुरक्षा - अधिकार पाने पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे। क्या इस गरीब देश का राष्ट्रपति सैंकड़ों कमरों वाले आलीशान महल में रहेगा जिसपर प्रतिदिन बीस लाख रूपये रख रखाव पर खर्च होते हैं।  और उससे गरीबों के हमदर्द होने की आपेक्षा करना फज़ूल होगा। क्या देश के प्रधानमंत्री के निवास का बिजली का बिल लाख रूपये महीना ही रहेगा और वो सरकारी खर्चों में कटौती की बात भी किया करेगा। क्या सांसदों-विधायकों का शाही खर्च जारी रहेगा , जनता के पैसे को यूं ही बर्बाद किया जाता रहेगा। देश का सब से बड़ा घोटाला जिसका आज तक कभी किसी ने ज़िक्र तक नहीं किया और जो हमेशा से चल रहा है , वो सरकारी विज्ञापनों का अपने प्रचार और मीडिया को प्रभावित करने का कार्य बंद होगा कभी। अभी कितनी उम्र ये मीडिया वाले इन बैसाखियों का सहारा पाकर ही चल सकेंगे। इस देश की जनता कब तक ये अनचाहा बोझ ढोती रहेगी। नेता-अफ्सर कब तक सफ़ेद हाथी बने रहेंगे। इनका राजा महाराजा की तरह रहना क्या अमानवीय अपराध नहीं है उस देश में जिसमें आधी आबादी को दो वक़्त रोटी तो क्या पीने को साफ पानी तक मिलता नहीं। जब करोड़ों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं , जब जनता को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा तक नहीं मिलती है तब ये बातें करते हैं , देश की आर्थिक शक्ति की।  क्या ये देश कुछ मुठी भर लोगों की जागीर है , गरीब-अमीर में कितना अंतर हो ये कभी तो तय करना होगा , अगर वास्तव में सभी नागरिकों को समानता का हक देना है।

               चुनाव का मेला भले निपट गया हो , ऐसे कई प्रश्नों की धूल अभी बाकी है।  इसको क्या अभी भी अनदेखा किया जा सकता है। मेले के उजड़ जाने के बाद वहां भी बहुत कुछ ऐसा ही होता है जिसको कोई मुड़ कर नहीं देखता। मगर जब तक इन कठिन सवालों का हल नहीं खोजते , अच्छे दिन कैसे आयेंगे। फिर पांच साल बाद मेला लगाया वही दुकानदार देशभक्ति और धर्म की दुकान सजाकर दोबारा अपना कारोबार कर खूब कमाई कर गए लोग हाथ मलते रह गए। चुनावी मेला भी गांव के मेले जैसा होता है भीड़ और शोर में खो जाते हैं लोग और अपनी जेबें खाली कर ले आते हैं बनवटी नकली सामान की तरह मतलबी लोगों की कोई सरकार। मेले के खत्म होते ही बाकी रह जाता है ऐसा मंज़र जिसकी कल्पना नहीं की होती है। 

मई 12, 2014

POST : 440 इश्क़ में रात दिन आह भरते रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 इश्क़ में रात दिन आह भरते रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इश्क़ में रात दिन आह भरते रहे
वो अभी आएंगे राह तकते रहे ।

सबकी नज़रें उधर देखती रह गईं
हम झुकी उस नज़र पर ही मरते रहे ।

चुप रहे हम नहीं कुछ भी बोले कभी
बात करते रहे खुद मुकरते रहे ।

पांव जलते गये , खार चुभते रहे
राह से इश्क़ की हम गुज़रते रहे ।

आपसे कर सके  हम न फरियाद तक
ज़ख्म खाते गये , अश्क़ झरते रहे ।

किसलिये देखते हम भला आईना
देखकर आपको हम संवरते रहे ।

तोड़ दीवार दुनिया की मिलने गये
फिर भी इल्ज़ाम "तनहा" कि डरते रहे ।
 

 

मई 04, 2014

POST : 439 इक हमदर्द अपना , इक हमराज़ अपना ( कहानी ) डा लोक सेतिया

        इक हमदर्द अपना  ,  इक हमराज़ अपना  ( कहानी )

                               डा लोक सेतिया

       संदीप आज फिर बहुत उदास है , अकेला है। कितनी बार उसको यही मिलता है , बार बार संदीप किसी से दोस्ती करता है , और बार बार उसको दोस्त कोई नया ज़ख्म दे जाते हैँ। काश आज उर्मिला होती उसका दर्द बांटने को। जब भी परेशान होता है संदीप , उसे याद आ जाती है उर्मिला की वो कसम खुदखुशी न करने की। कभी कभी सोचता है संदीप कि क्या सच में वो इसीलिये जी रहा है या ये इक बहाना है खुदखुशी न करने का। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह मरने से डरता है , उसके पास जीने का कोई भी मकसद ही नहीं है , वो बस इसलिये ज़िंदा है क्योंकि ख़ुदकुशी करने का साहस ही नहीं कर पा रहा। उर्मिला की वो कसम केवल इक बहाना है। संदीप को याद है वो दिन जब वो अपनी ज़िंदगी से बेहद निराश हो चुका था और ख़ुदकुशी करने ही वाला था कि उसकी खिड़की के बाहर से किसी ने आवाज़ दी थी उसका नाम लेकर और कहा था कि उसे इक ज़रूरी बात करनी है थोड़ी देर को अपने कमरे का दरवाज़ा खोल दो। बिना कुछ भी समझे संदीप ने आपने कमरे का दरवाज़ा खोल दिया था। उर्मिला बदहवास सी भीतर चली आई थी। आकर बोली थी मुझे जानते तो होगे तुम्हारे घर की साईड वाली गली में ही रहती हूँ मैँ। हां देखा है आपको अक्सर इधर से गुज़रते हुए , संदीप ने कहा था , बतायें क्या बात करना चाहती हैं मुझसे।

                उर्मिला ने कहा था क्या आप मेरे साथ फवारे वाले पार्क तक चल सकते हैं , यहां बात करना उचित नहीं होगा। संदीप आपसे निवेदन है कि बस थोड़ी देर मेरे साथ चलकर मेरी बात सुन लो , उसके बाद चाहे जो मर्ज़ी आप कर सकते हैं , मुझे मालूम है आप आज ख़ुदकुशी कर रहे थे। संदीप ये सुन कर चकित रह गया था , बोला था कि आपको कैसे पता चला और आप मेरा नाम भी जानती हैं , मुझे तो आपके बारे कुछ भी पता नहीं है। मेरा नाम उर्मिला है , अब बाकी बातेँ  अगर कहीं बाहर चल कर करें तो अच्छा होगा। और वो दोनों कुछ दूरी पर उस पार्क में चले आये थे। पार्क के सबसे पीछे वाले कोने में जहां सीढ़ियां बनी हुई थी , जाकर बैठ गये थे दोनों। संदीप पूछता उस से पहले ही उर्मिला बोली थी , संदीप जी आपको हैरानी होगी कि मुझे आपके बारे बहुत कुछ पता है। मेरा कमरा आपकी खिड़की के ठीक सामने है और इस तंग गली जो हमारे दोनों घरों के बीच है के बाहर से मैंने कितनी बार आपकी बातेँ सुनी हैं , जब भी आपके दोस्त आपको बिना किसी कारण के बुरा भला कहते रहे और आप चुप चाप सुनते रहे तब मेरी पलकें भीगती रही हैं। ये दर्द मुझे भी मिला है उम्र भर , तभी मैंने आपके दर्द को हमेशा अपना समझा है। जानती हूँ आपको किसी सच्चे दोस्त की तलाश है और ये भी जानती हूँ कि चाह कर भी मैँ वो नहीं बन सकती। मगर मैं चाहती हूँ की हम दोनों इक दूजे के हमदर्द और हमराज़ बन कर , आपस के दुःख - दर्द बांटा करें। मैंने ये पहले भी कई बार कहना चाहा है मगर कभी कह नहीं पाई , आज खिड़की से देखा आपको छत से रस्सी टांगते हुए और ख़ुदकुशी करने की कोशिश करते हुए , तब लगा ये शायद आखिरी अवसर है इक पहल करने का। मैं आज अपना हाथ बढ़ा रही हूं , क्या मेरा हाथ थामोगे मेरे हमदर्द और हमराज़ बनोगे हमेशा के लिये। आपको हो न हो मुझे आप पर पूरा यकीन है कि अगर कोई मेरा राज़दार और हमदर्द बन सकता है तो वो केवल आप ही हैं दूसरा कोई शायद ही मिले जीवन में। संदीप ने खामोशी से थाम लिया था वो हाथ जो उर्मिला ने उसकी तरफ बढ़ाया था। शायद इसकी ज़रूरत आज संदीप को भी बहुत थी। तब उर्मिला ने कहा था कि आज आपको मुझे ये वादा करना ही होगा कि भले कितनी ही मुश्किलें आयें , कितनी परेशानियां हों जीवन में , आप कभी हार नहीं मानोगे जीवन से। मुझे जब भी कोई मुश्किल होगी मैं आपको ज़रूर बताया करूंगी और आप भी मुझसे कभी कोई परेशानी नहीं छिपाओगे। और तब से संदीप और उर्मिला इक ऐसे नाते में बन्ध गये जिसका कोई नाम नहीं था। हां उसके बाद संदीप की खिड़की हमेशा खुली रहती थी , और जब भी दोनों को कोई बात करनी होती दोनों उसी पार्क के कोने में जाकर बैठ जाते और बातें किया करते। संदीप की तरह ही उर्मिला को भी हर किसी से नफरत ही मिली थी बिना किसी कारण। मगर जब से उर्मिला इस बेदर्द दुनिया से चली गई हमेशा के लिये तब से संदीप को उसकी कमी हर पल खलती है। अब उसको जीना और भी कठिन लगने लगा है , उसका अपना तो कोई कभी भी था ही नहीं। मगर इक हमदर्द और हमराज़ तो था , जो काफी था किसी भी हालात में ज़िंदा रहने के लिये।

POST : 438 भीख की महिमा ( तरकश ) डा लोक सेतिया

     भीख की महिमा ( तरकश ) डा लोक सेतिया

      ये बात सभी धर्म के ग्रंथ एक समान कहते हैं कि जिसके पास धन दौलत , सुख सुविधा सब कुछ है मगर उसको तब भी और अधिक पाने की लालसा रहती है वो सब से दरिद्र है । आप जिनको बहुत महान समझते हैं वे भी क्या ऐसे ही नहीं हैं । उनको अपने काम से सब मिलता है , नाम-पैसा-शोहरत , फिर भी उनकी दौलत की हवस है कि मिटती ही नहीं । विज्ञापन देने का काम करते हैं , पीतल को सोना बताते हैं , अपनी पैसे की हवस पूरी करने को । हम तब भी उनको भगवान बता रहे हैं । ईश्वर तो सब को सब कुछ देता है , कभी मांगता नहीं , उसको कुछ भी नहीं चाहिये ।  इन कलयुगी भगवानों को जितना भी मिल जाये इनको थोड़ा लगता है । ये जब समाज सेवा भी किया करते हैं तो खुद अपनी जेब से कौड़ी ख़र्च नहीं किया करते , यहां भी इनके चाहने वाले उल्लू बनते हैं । उल्लू मत बनाना कह कर खुद उल्लू सीधा कर लेते हैं अपना । देश के नेता हों या प्रशासन के अधिकारी ये सारे भी इसी कतार में शामिल हैं । देश की गरीब जनता इनकी दाता है और ये लाखों करोड़ों की संपत्ति पास होने के बाद भी उसके भिखारी । ये लोग भीख भी मांग कर नहीं मिले तो छीन कर ले लिया करते हैं , इनको भीख पाकर भी देने वाले को दुआ देना नहीं आता । हर भिखारी मानता है कि भीख लेना उसके हक है , भीख लेकर ख़ाने में उनको कोई शर्म नहीं आती । वेतन जितना भी हो रिश्वत की भीख बिना उनका पेट भरता ही नहीं । ये भीख मज़बूरी में पेट की आग बुझाने को नहीं लेते , कोठी कार , फार्महाउस बनाने को लेते हैं । ये जो भीख लेते हैं उसको भीख न कह कर कुछ और नाम दे देते हैं ।

          भीख भी हर किसी को नहीं मिला करती , उसी को मिलती है जिसे भीख मांगने का हुनर आता हो । ये गुर जिसने भी सीख लिया वो कहीं भी चला जाये अपना जुगाड़ कर ही लेता है । भीख और भ्र्ष्टाचार दोनों की समान राशि है , बताते हैं कि रिश्वत की शुरुआत ऐसे ही हुई थी । पहले पहले अफ्सर - बाबू किसी का कोई काम करने के बाद ईनाम मांगा करते थे , धीरे धीरे ये उनकी आदत बन गई और वह काम करने से पहले दाम तय करने लगे जो बाद में छीन कर लिया जाने पर भ्र्ष्टाचार कहलाने लगा । आज देश में सब से बड़ा कारोबार यही है , तमाम बड़े लोग किसी न किसी रूप में भीख पा रहे हैं ।  जिनको हम समझते हैं देश के सब से अमीर लोग हैं उनको भी सरकारी सबसिडी की भीख चहिये नहीं तो वो रहीस रह नहीं सकते । जाँनिसार अख़्तर जी का इक शेर है ऐसे लोगों के नाम , 
 

"शर्म आती है कि उस शहर में हैं हम कि जहाँ , 

न मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही न हो "। 

 
आजकल भीख मांगने वाले भी सम्मान के पात्र समझे जाते हैं , जिसे देखो वही इस धंधे में शामिल होना चाहता है । भीख नोटों की ही नहीं होती , वोटों की भी मांगी जाती है , वोट जनता का एकमात्र अधिकार है वो भी नेता खैरात में देने को कहते हैं , वोट पाने के हकदार बन कर नहीं । कई साल से देश की सरकार तक समर्थन की भीख से ही चल रही है । देश की मलिक जनता को जीने की बुनियादी सुविधाओं की भी भीख मांगनी पड़ रही है , मगर नेता-अफ्सर सभी को नहीं देते , अपनों अपनों को देना पसंद करते हैं । अफ्सर मंत्री से मलाईदार पोस्टिंग की भीख मांगता है तो मंत्री जी मुख्य मंत्री जी से विभाग की । हर राज्य का मुख्य मंत्री केंद्र की सरकार के सामने कटोरा लिये खड़ा रहता है । राजनीति और प्रशासन जिंदा ही भीख के लेन देन पर है । विश्व बैंक और आई एम एफ के सामने कितनी सरकारें भिखारी बन ख़ड़ी रहती हैं । इनको भीख किसी दूसरे नाम से मिलती है जो देखने में भीख नहीं लगती । मगर जिस तरह गिड़गिड़ा कर ये भीख मांगते हैं उस से सड़क के भिखारी तक शर्मसार हो जाएं । सच तो ये है कि सड़क वाले भिखारी भीख अधिकार से और शान से मांगते हैं , उनको पता है लोग भीख अपने स्वार्थ के लिये देते हैं , बदले में पुण्य मिलेगा ये सोच कर ।

          बड़े बड़े शहरों में रोक लगा दी गई है सड़क पर भीख मांगने पर , जो पुलिस वाले खुद सड़क पर खड़े होकर भीख लिया करते वो आजकल जुर्माना करते हैं उन पर जो भीख दे रहा होता है ।  भिखारी पर नहीं होता जुर्माना । मतलब यही है कि भीख मांगना नहीं देना अपराध है । देश की तमाम जनता इस कानून के कटघरे में खड़ी नज़र आती है , इस युग में किसी पर दया करना कोई छोटा अपराध नहीं है । कहते थे दाता एक राम है भिखारी सारी दुनिया , आजकल बदल गया है ये भीख देना भीख लेना केवल सरकार का एकाधिकार क्षेत्र है नेताओं अधिकारियों सरकारी विभागों को छोड़ कोई खैरात मांग भी नहीं सकता दे भी नहीं सकता , जिनका गुज़र बसर भिक्षा से होता है उनको कोई और रास्ता नहीं मिले तो राजनीति उनका आख़िरी ठिकाना है ।  

सबसे ज़्यादा भिखारियों वाले 6 देश | Earth

अप्रैल 20, 2014

POST : 437 बिन बरसी बदली ( कहानी ) डा लोक सेतिया

       बिन बरसी बदली ( कहानी ) डा लोक सेतिया

        चालीस वर्ष बाद बस में अचानक मुलाकात हो गई राकेश और सुनीता की। कॉलेज में साथ साथ पढ़ते रहे थे , उम्र चाहे बढ़ गई हो तब भी पहचान ही लिया था सुनीता ने राकेश को जो दूसरी तरफ बैठा था। और उठकर उसके पास जाकर कहा था , हेलो राकेश कैसे हो। राकेश भी पहचान गया था सुनीता को , बोला था अरे आप सुनीता जी , नमस्कार , मैं अच्छा हूं आप कैसी हैं। इतने साल हो गये , अचानक आपको मिलकर बहुत ख़ुशी हो रही है। मुझे भी आपको देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा है , क्या आप भी दिल्ली जा रहे हैं , सुनीता ने पूछा था। हां दिल्ली में बेटा जॉब करता है , उसके पास जा रहा हूं , रहता अभी भी अपने शहर में ही हूं , राकेश ने बताया था। फिर पूछा था कि आप क्या दिल्ली में रहती हैं आजकल। नहीं , सुनीता बोली थी , मेरी शादी तो राजस्थान में हुई थी और वहीं रहती हूं , छोटी बहन रहती है दिल्ली में , उसके पास जा रही हूं। सुनीता ने कहा था , आप उधर आकर बैठ जाओ मेरे साथ की सीट खाली है , साथ साथ बैठ कर बातें करेंगे। और राकेश सुनीता के साथ जाकर बैठ गया था। कॉलेज की बातें , फिर अपनी अपनी ज़िंदगी की बातें , अपने परिवार की जीवन साथी की बच्चों की बातें इक दूजे से पूछने बताने लगे थे। आपस में मोबाइल फोन नंबर लिये -दिये गये ताकि आगे भी बात होती रहे। यूं ही बात चली तो पता चला कि दोनों ही फेसबुक पर भी हैं , फोन पर ही राकेश ने सुनीता को अपनी प्रोफाइल दिखाई थी और फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भी भेज दी थी। सुनीता ने बताया था कि वो फेसबुक पर कभी कभी ही रहती है , और उसने पूछा था राकेश क्या आप मुझे अपना ईमेल दे सकते हैं। क्यों नहीं , राकेश ने कहा था , और ऐसे दोनों ने अपना अपना ईमेल दे दिया था। कुछ घंटे कैसे बीत गये थे दोनों को पता तक नहीं चला था , दिल्ली पहुंच कर जब अलग होने लगे तब सुनीता ने पूछा था कि क्या वो ईमेल पर आपस की बातें आगे भी करते रहेंगे। राकेश का जवाब था कि बेशक वो मेल कर सकती हैं और राकेश ज़रूर जवाब दिया करेगा। सुनीता ने ये वादा भी लिया था कि दोनों की दोस्ती की बात इक दूजे तक ही रहेगी।

                राकेश को कुछ दिन बाद सुनीता का भेजा मेल मिला था। सुनीता ने लिखा था , शायद ये बात आपको पहले भी कॉलेज के ज़माने में महसूस हुई हो कि मैं आपको बेहद पसंद करती थी। मगर तब आप लड़के होकर भी नहीं कह सकते थे ये बात तो मैं एक लड़की अगर कहती तो आवारा समझी जाती। फिर भी एक बार मैंने आपकी किताब में एक पत्र रखा था , आपसे किताब मांगी थी और अगले पीरियड में पत्र रख कर वापस भी कर दी थी। मगर उसके बाद इक डर सा था कि कहीं कोई दूसरा न पढ़ ले , तभी कॉलेज का समय समाप्त होते ही फिर आपसे किताब मांग ली थी इक दिन को। सच कहूं वो पत्र मैंने कभी फाड़ा नहीं था , दिल पर लिखा हुआ है आज तक , मालूम नहीं ये बात अब बताना उचित है या अनुचित , मगर इक सवाल हमेशा मेरे मन में रहता रहा है कि अगर मैंने तब वो पत्र आपको पढ़ने दिया होता तो क्या आज मेरी ज़िंदगी कुछ अलग होती और शायद आपकी भी। क्या ये हम दोनों के लिये सही होता। ऐसा बिल्कुल नहीं कि मुझे कोई शिकायत हो अपने जीवन से या किसी से भी , पर यूं ही सोचती हूं कि तुम साथ होते तो क्या होता। खाली समय में जाने कितनी बार ये सवाल मैंने खुद से किया है। पता नहीं आपको याद भी है या नहीं कि एक बार वार्षिक समारोह में मंच पर हमने साथ साथ गीत गाया था। तब जब उसकी फोटो देखी थी तब वो एक ही थी और मैंने आपको कहा था कि ये मुझे लेने दो और आप ने ली हुई वापस कर दी थी मेरे लिये। मेरे पास हमेशा वो फोटो रही है और वो गीत हमेशा गुनगुनाती रहती हूं मैं। राकेश मैंने उस पत्र में लिखा था तुम मेरे सपनों के राजकुमार हो , मरे मन में रहते हो , मुझे नहीं पता कि उसको प्यार कहते हैं या मात्र आकर्षण , मगर वो भावना मैं और किसी को लेकर महसूस की नहीं थी कभी। मैंने आपसे वादा लिया था आपस की बात किसी को नहीं बताने का रास्ते में बस के सफर में तो केवल यही बात बताने के लिये जो जाने क्यों मुझे बतानी भी ज़रूरी थी और पूछनी भी कि आप क्या सोचते हैं इसको लेकर।

               राकेश ने बार बार पढ़ा था सुनीता की मेल का इक इक शब्द बता रहा था कि उसने जो भी लिखा है सच्चे मन से और साहसपूर्वक लिखा है। राकेश ने सुनीता को रिप्लाई किया था ये लिख कर। मुझे नहीं मालूम कि आपको अब ये सारी बातें मुझे कहनी चाहियें अथवा नहीं , हां इतना जानता हूं कि जो आपने अपने दिल में अनुभव किया उसमें कुछ भी न तो अनुचित था न ही असव्भाविक। अपने मन पर अपनी सोच पर , पसंद नापसंद पर किसी का बस नहीं होता है। इतना ज़रूर मैं भी आपकी ही तरह सच और इमानदारी से बताना चाहता हूं कि मुझे उस दिन आपसे मिलकर बहुत ही अच्छा लगा था और आज ये आपकी बातें पढ़कर भी इक ख़ुशी अनुभव कर रहा हूं। ख़ुशी इस बात की है कि शायद जीवन में पहली बार मुझे ये एहसास हुआ है कि कोई है जो दुनिया में मुझे भी पसंद करता है , चाहता है। नहीं मुझे भी किसी से ज़रा भी शिकवा शिकायत नहीं है , मगर ये भी हकीकत है कि मुझे इस  दुनिया में कभी भी तिरिस्कार और नफरत के सिवा कुछ भी मिला नहीं किसी से। सच कहूं तो मैंने खुद ही कभी सोचा ही नहीं कि मैं भी किसी के प्यार के काबिल हूं। मुझसे हर किसी को शिकायत ही रही है , मैं हमेशा इस अपराधबोध को लेकर जिया हूं कि मुझे जो भी सभी के लिये करना चाहिये वो चाह कर भी मैं कर सका नहीं जीवन भर। इसलिये मुझे यही लगता है कि ये अच्छा ही हुआ जो तुमने वो पत्र मुझसे वापस ले लिया था मेरे पढ़ने से पहले ही। वरना जो भावना आज चालीस वर्ष बाद भी आपके मन में मेरे प्रति बाकी है वो शायद नहीं रह पाती। मैं आपको कुछ भी दे नहीं पाता ठीक उसी तरह जैसे अन्य किसी को नहीं दे सका हूं। शायद किसी को नहीं मालूम कि मैं खुद इक तपते हुए रेगिस्तान की तरह हूं , जो खुद इक बूंद को तरसता रहा उम्र भर वो भला किसी की प्यास कैसे बुझा सकता था। सुनीता आपकी भावना मेरे लिये किसी बदली से कम नहीं है। इसलिये ये अच्छा हुआ जो मैंने आपका वो पत्र नहीं पढ़ा , आपकी ये मेल भी डिलीट कर दूंगा जैसा आपने लिखा है , मगर ये सब अब मेरे भी मन में कहीं रहेगा हमेशा। मैं आपको ये सब लिखने पर क्या कहूं , मैं नहीं समझ पा रहा। धन्यवाद या मेहरबानी जैसे शब्द काफी नहीं हैं। हम जब तक हैं अच्छे दोस्त बन कर ज़रूर रह सकते हैं। मुझे आपको जवाब की प्रतीक्षा रहेगी , काश मैं आपको कोई ख़ुशी दे सकूं मित्र बन कर ही।

                 सुनीता का संक्षिप्त सा जवाब मेल भेजने के थोड़ी देर बाद ही आ गया था , लगता है जैसे उसको इंतज़ार था राकेश की मेल का और पढ़ते ही रिप्लाई कर दिया था।  लिखा था , हो सकता है कि मुझे आपसे कुछ भी हासिल नहीं होता जैसा आपने लिखा है , कारण चाहे जो भी हों। मगर मुझे अफ़सोस है तो इस बात का कि मैं वो बदली हूं जो शायद आपकी प्यास बुझा सकती थी। जो कभी बरस ही नहीं पाई।
                               

अप्रैल 17, 2014

POST : 436 तेरे वादे पे ऐतबार किया ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

      तेरे वादे पे ऐतबार किया ( हास-परिहास)  डा लोक सेतिया 

         आप मानो चाहे न मानो , सच तो सच है। पुरुष जब वादा निभाने की घड़ी आये तब पीछे हट जाते हैं और महिला अपनी जान तक गवा बैठती है। फिर भी आशिक कवियों ने , ग़ज़लकारों ने , अपनी प्रेमिका -माशूका पर वादा न निभाने के इल्ज़ाम बिना जाने समझे लगाये हैं। चलो आपको इक सच्ची बात बताते हैं। कोलकत्ता शहर में एक दम्पति ने तय किया कि साथ जीते रहे हैं चलो अब साथ-साथ मरते हैं। अपने प्यार की कसमें खाई और दोनों ने डूबने के लिये गंगा नदी में छलांग लगा दी। लेकिन तब भी दोनों साथ-साथ मर नहीं सके। पति महोदय मरने से डर गये और तैर कर बाहर निकल आये किनारे पर अपनी पत्नी को मझधार में अकेला छोड़ कर। पत्नी को तैरना नहीं आता था इसलिये उसको डूब कर जान गवानी पड़ी। ग़ज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया। जो अभी अभी खाई कसम न निभा सका उसकी सात जन्म साथ निभाने की कसम पर कौन यकीन करे। अनुभवी महिलायें हमेशा हर महिला को यही सीख देती हैं कि पुरुषों पर कभी भरोसा मत करना। ये अनुभव उनको ज़रूर किसी पुरुष की बेवफाई ने दिया होगा। पुरुष चांद तारे तोड़ लाने के वादे करते हैं और एक नई साड़ी तक नहीं ला देते मांगने पर। बावजूद इसके औरतों को अपने पति के बारे उम्र भर ये अंधविश्वास बना रहता है कि मेरे ये वैसे नहीं हैं। पति हर दिन देर से आने का कोई बहाना बनाता है और पत्नी मान लेती है। इक फिल्म की नायिका गीत गाती है , कभी हमारी मुहब्बत का इम्तिहान न लो , फिर आगे कहती है , मैं अगर जान भी दे दूं तो ऐतबार नहीं , कि तुझ से बढ़ के मुझे ज़िंदगी से प्यार नहीं। पति भी जानते हैं मीठी-मीठी बातों से बहलाना अपनी पत्नी को , जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे , तुम दिन को अगर रात कहो रात , रात कहेंगे। मैंने भी यही गीत सुनाया था पहली रात को उनको , मगर सच तो ये है कि उन्हें हमेशा मुझसे शिकायत भी रही है कि बहुत मनमानी करता हूं। कोई न कोई कारण तो ज़रूर होगा उनकी शिकायत का , मगर हम भी जानते हैं उनको बातों से बहला लेना।

                           ये खबर पढ़कर एक पत्नी पीड़ित कहने लगे ये कमाल का फार्मूला है , न कोई क़त्ल का इल्ज़ाम न ही ख़ुदकुशी को विवश करने की तोहमत। उल्टा सभी उसके साथ सहानुभूति जता रहे होंगे , कैसे जियेगा बेचारा अकेला।  इसी बात पर कोई अपना दिल दे बैठे इनको और चार दिन में दूसरी मिल जाये फिर से साथ-साथ जीने-मरने की कसम खाने को क्या पता। वे भी सोचने लगे कि अपनी पत्नी को तैयार कर लेंगे एक साथ मरने को। उनको लगता है ये ख्याल उनको पहले आ जाता तो कभी का उस मुसीबत से छुटकारा पा लिया होता। सोचते सोचते उनको लगा किसे मालूम यही तरीका पहले भी कुछ लोग आज़मा चुके हों , चुपचाप खुद तैर कर बाहर निकल घर चले जाते हों और बाद में पत्नी की लाश पर आंसू बहाते हों। किसी को पता तक नहीं चल पाया हो कि उनकी पत्नी ने ख़ुदकुशी उन पर ऐतबार कर के ही की थी। इक आधुनिक प्रेम कथा और भी है आज के नये युग की। दो प्रेमियों को जब समाज और परिवार ने विवाह नहीं करने दिया तब उन्होंने भी साथ-साथ ख़ुदकुशी करने का निर्णय लिया और बाज़ार से ज़हर लाकर खा लिया।   बेफिक्र होकर सो गये , सोचा ये नींद कभी नहीं खुलेगी। मगर आजकल बाज़ार में ज़हर तक नकली मिलता है , यही हुआ और वे बच गये। ऐसे मैं प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को समझाया कि अपनी तकदीर में ही नहीं है साथ-साथ जीना-मरना। अब हमें अपनी ज़िद छोड़ तकदीर का फैसला मान लेना चाहिये , अपना अपना घर अलग-अलग बसा लेना चाहिये घर वालों की बात मानकर। अब दोनों प्रेमी खुश हैं अपने अपने घर में , और उनके परिवार वाले भी। क्या खबर नकली ज़हर लाना प्रेमी की चालाकी रही हो। जिसने भी साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खाने का चलन शुरू किया होगा वो बहुत दूर की सोचने वाला रहा होगा। मेरे एक मित्र को तो वो गीत पसंद था , उतना ही उपकार समझ कोई जितना साथ निभा दे। जन्म-मरण का मेल है सपना ये सपना बिसरा दे। कोई न संग मरे , मन रे तू काहे न धीर धरे।

                  अब महिलायें उतनी भी सीधी नहीं रह गई हैं , अब वे इस बात का ध्यान रखेंगी कि उनका पति उनको चालाकी से तो नहीं डुबो रहा है। अगर पति को तैरना आता है तो साथ-साथ डूबने की बात मूर्ख बनाने के सिवा और क्या है। अब ऐसे में समझदार महिला अपने पति को पहले आप कह कर तसल्ली कर कर सकती हैं।

अप्रैल 14, 2014

POST : 435 मेरी भी किताब बिकवा दो ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

    मेरी भी किताब बिकवा दो ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

तिथि उनतीस नवंबर सन दोहज़ारदो , अख़बार दैनिक भास्कर। मेरा पुराना व्यंग्य जो तब छपा था ये उसका नया संस्करण है। इक शोर सा मचा हुआ है , किन्हीं दो लोगों ने किताबें लिखी हैं अपने सरदार मनमोहन सिंह जी को निशाना बनाते हुए। सच पूछो तो कुछ भी नया नहीं है , कोई राज़ की बात नहीं है कि पिछले दस साल से विश्व का सब से बड़ा लोकतंत्र चयन से नहीं मनोनयन से चल रहा है। मुझे जाँनिसार अख़्तर जी की इक ग़ज़ल का मतला याद आ रहा है। "वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं , जो इश्क में तालिब नहीं मतलूब रहे हैं "।
 
                         (मतलूब का अर्थ होता है मनोनीत ) । 
 
कहने का अभिप्राय ये कि ऐसा सदा से होता रहा है कई जगह , मगर लोकतंत्र में भी जनता नहीं चुने बल्कि कोई और उसपर अपनी मर्ज़ी का शासक थोपे ऐसा कहीं और शायद ही होता हो अपने देश को छोड़कर। तो सवाल उन दो किताबों का है जिनको लिखने वाले अपने देश के प्रधानमंत्री के साथ शासन में सरकारी उच्च पदों पर रहने के बाद सेवा निवृत होने के बाद उनका काला चिट्ठा खोलने का दावा कर रहे हैं। क्या वे सच्चे देशभक्त हैं , ईमानदार हैं। सोचना तो पड़ेगा , अगर उनको अपने कर्तव्य की राष्ट्र के प्रति निष्ठा की परवाह होती तो वे आज तक चुप नहीं बैठे रहते। देश को लूटने वालों के हमराज़ नहीं बने रहते , जब तक अपनी नौकरी का सवाल था। अब जिनको नौकरी देश हित से बड़ी लगती हो , उनका किताब लिखने का मकसद भी कुछ और भी हो सकता है। चलो मान लो वे जो भी बता रहे हैं सही है तब क्या वो भी चुप रहने के अपराधी नहीं हैं। मगर यहां मनमोहन सिंह जी की चूक यही है कि उनको ये मालूम नहीं था कि हर चीज़ की तरह इसका भी उपाय है जो वे कर नहीं सके। उनको हरियाणा वालों से सबक लेना चाहिये था। क्या आपको मालूम है कि यहां कोई भी कैबिनिट सचिव पिछले नौ साल में सेवा निवृत नहीं हुआ है। सब को आगे कार्यकाल बढ़ा कर बनाये रखा गया है शासन में अपना सहयोगी। यकीन करें ये दोनों महानुभव भी अगर नौकरी में रहते तो किताब लिखने को फुर्सत ही नहीं मिलती। तभी कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर। अब उनकी किताबों की चर्चा देश विदेश में होगी और उससे उनको क्या क्या हासिल होगा ये तो आने वाला वक़्त ही बतायेगा , मगर मैं आपको वो पुरानी बात ग्यारह साल बाद फिर से सुनाता हूं। अब वो व्यंग्य।

              मुझे भी अपनी किताब बेचनी है। अब मुझे ये भी पता चल गया है कि किताब कैसे बेची जा सकती है। बस एक सिफारिश का पत्र  यू.जी.सी. चेयरमैन का किसी तरह लिखवाना है। जैसा १६ अक्टूबर २००२ को यूजीसी के अध्यक्ष अरुण निगवेकर ने लिखा है सभी विश्व विद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थाओं को , प्रधानमंत्री जी की जीवनी की पुस्तक खरीदने की सलाह देते हुए। "जननायक " किताब की कीमत अगर चार हज़ार रुपये हो सकती है तो मुझ जैसे इक जनलेखक की किताब चालीस रुपये में बिक ही सकती है। कुछ छूट भी दे दूंगा अगर कोई सौ किताबें एक साथ खरीद ले। मुनाफा न सही छपाई का खर्च तो निकल ही आएगा। मुफ्त में मित्रों को उपहार में देने से तो अच्छा है।समस्या यही है कि यूजीसी वाले मुझे नहीं जानते , मैं उनको जनता हूं ये काफी नहीं। मगर अभी पूरी तरह कहां जानते हैं लोग उसको।  अभी तक सुना था वो अनुदान देते हैं , किताबें भी बिकवाते हैं अब पता चला है। इक सत्ताधारी मुझे समझा रहे थे कि ये ज़रूरी होता है , बिना प्रचार के कुछ नहीं बिकता , साबुन तेल से इंसान तक सब को बाज़ार में बिकने को तरीके अपनाने ही पड़ते हैं। अब प्रधानमंत्री जी के प्रचार के लिये क्या इस देश के गरीब चार हज़ार भी खर्च नहीं कर सकते। आखिर कल यही तो इतिहास में शामिल किया जायेगा। उधर पुस्तकालय वालों का कहना है कि उनको कोई एक दो प्रति थोड़ा खरीदनी होगी , थोक में खरीदनी होती है। यूजीसी कहेगी तो प्रकाशक से छूट या कमीशन कौन मांग सकता है। मुझे मेरी बेटी ने बताया कि दूसरी कक्षा में पास होने के लिये उसकी अध्यापिका ने भी सभी छात्रों को एक किताब खरीदने को विवश किया था। मैंने जब स्कूल के अध्यापक से पूछा कि आप कैसे किसी किताब को ज़रूरी बताते हैं तो उनका कहना था कि जो प्रकाशक उनसे मिलता है आकर उसी की किताब को ही अच्छा बता सकते हैं जो मिला ही नहीं आकर उसकी किताब को किसलिये सही बतायें। उनकी बात में दम है , मुझे भी किसी तरह यूजीसी के चेयरमैन से जानपहचान करनी ही चाहिये। क्या खबर वे भी यही सोचते हों कि मैं उनको मिलने आऊं तभी तो वे मेरी किताब की सिफारिश करें। शायद वो इसी इंतज़ार में हों कि मैं मिलूं तो वे पत्र जारी करें।

                                सोचते सोचते उन नेता जी की याद आई जिनकी सुना है राजधानी तक पहचान है। लगा कि वे फोन कर देंगे तो बात बन सकती है। मगर नेता जी को पता ही नहीं था कि यूजीसी किस बला का नाम है। वे आठवीं पास हैं , कभी सुना ही नहीं था कि ये किस चिड़िया का नाम है। फिर ध्यान मग्न हो कुछ सोचने लगे , अचानक नेता जी को कोई उपाय सूझा जो वो मुझे पकड़ कर अपने निजि कक्ष में ले गये। मुझे कहने लगे तुम चिंता मत करो , तुम जितनी किताबें छपवाना चाहो छपवा लो , मैं सारी की सारी खरीद लूंगा। अगर मैं भी उनका एक काम कर दूं। वे चाहते हैं कि मैं उनकी जीवनी लिखूं जिसमें उनको नेहरू -गांधी से भी महान बताऊं। मैं अजीब मुश्किल में फंस गया हूं , इधर कुआं है उधर खाई। घर पर आया तो देखा श्रीमती जी ने रद्दी वाले को सारी किताबें बेच दी हैं तोल कर , पूरे चालीस किलो रद्दी निकली मेरी अलमारी से आज शाम को।

अप्रैल 13, 2014

POST : 434 डर्टी पिक्चर से डर्टी मांईड तक ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

  डर्टी पिक्चर से डर्टी मांईड तक ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

पिछले वर्ष सब से अधिक पुरुस्कार जिस फिल्म को मिले , उसका नाम है डर्टी पिक्चर। फिल्मकारों को ये बात कभी की समझ आ चुकी है की जिस शब्द को हिंदी में कहना खराब लगता है उसे अंग्रेजी में बड़े आराम से कह सकते हैं। और अकसर वही बात लोगों को इतनी पसंद आती है कि हिट हो जाती है। अगर इस फिल्म का नाम हिंदी में होता , गंदी तस्वीर , तो अंजाम शायद कुछ दूसरा होता। वास्तव में कोई तस्वीर गंदी नहीं होती , गंदी देखने वाले की नज़र होती है , सोच ही है जो अच्छी या बुरी होती है। इसलिए जब डर्टी पिक्चर की बात की जाये तब ये समझ लिया जाये कि डर्टी पिक्चर नहीं बल्कि डर्टी माईंड लोग होते हैं। गंदी सोच वाले ही गंदी तस्वीरें देखते हैं। सबसे अधिक गंदगी आदमी के दिमाग में होती है। देखने में भोली सूरत , बातचीत में मधुरता लेकिन मन में राम बचाये क्या क्या रहता है। एक महिला मित्र ने अपने किसी पुरुष मित्र का नाम लिखा था अपनी पोस्ट पर ये बताते हुए कि जनाब का कहना है कि वे फेसबुक पर महिलाओं को तकने ही आते हैं। अब उनको ऐसा करना चाहिए था या नहीं ये वही जाने। तो बात ये है कि टीवी पर डर्टी पिक्चर का प्रसारण किया जाना था ,  कई दिन से चैनेल वाले प्रचार कर रहे थे , विज्ञापन दे रहे थे। बहुत लोग चाह कर भी सिनेमा हाल में इस फिल्म को देखने नहीं जा सके थे , उनको बेसब्री से उस दिन का इंतज़ार था। ठीक उसी दिन सरकार ने डर्टी पिक्चर को प्राईम टाईम पर दिखाने पर रोक लगा दी। अब देखने वालों को इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता था लेकिन सरकार को कौन समझाता कि उस समय दिखाने को चैनेल को कितने करोड़ के विज्ञापन मिलते हैं जबकि देर रात को बेहद कम।

                      मुझे एक बहुत पुरानी बात याद आ गई , तब समाज का सवभाव , चाल-चलन और ही होता था। उस ज़माने में धार्मिक फिल्म बेहद सफल होती थी। जाने क्या सोच कर किसी ने अपनी फिल्म का नाम रख दिया , तीन देवियां। लोग चले गये उसका पहला ही शो देखने यही मानकर कि देवी देवताओं पर बनी होगी फिल्म। नतीजा ये हुआ कि जब पता चला कि कहानी कुछ और ही है तो निराश हो लोग मध्यांतर में ही वापस चले गये थे। लोगों को मनचाही बात न दिखाई दे तो फिल फ्लॉप हो जाती है। इसलिये डर्टी पिक्चर नाम रख कर साफ सुथरी फिल्म बनाते तो वही नतीजा होना था। तभी डर्टी पिक्चर से डर्टी सीन हटाये भी नहीं जा सकते थे वर्ना डर्टी माईंड वाले निराश हो जाते और फिल्म भी फ्लॉप हो जाती। वास्तव में अगर सरकार को लोगों पर ऐतबार होता कि वो समझदार हैं डर्टी पिक्चर को नहीं देखना पसंद करेंगे तो उसको रोक नहीं लगानी पड़ती। सरकार के पास कारण भी हैं जनता पर भरोसा न करने के। जनता खुद ही डर्टी नेताओं को वोट देकर जिता देती है और उसके बाद शोर मचाती है कि संसद में दाग़ी नेता बैठे हैं। जनता के बार बार यही गलती दोहराने से ही लोकतंत्र की पावन नदी किसी गंदे नाले में बदल चुकी है। सच कहा जाये तो टीवी पर सब साफ सुथरा नहीं दिखाया जाता , बस उनको आवरण पहना देते हैं कोई चमकता हुआ। हर वस्तु के विज्ञापन में बेमतलब की नंगी तस्वीरें , अश्लीलता ही नहीं विकृत सोच की कहानियों वाले सीरियल , समाचार के नाम पर बेहूदा स्टोरी , कोई अनावश्यक बहस , टी आर पी के लिये , हर चैनेल लगता है मानसिक दिवालियापन का शिकार हो चुका है। सही गलत , उचित अनुचित की कोई चिंता नहीं , पैसा बनाना एक मात्र ध्येय बन चुका है। और ये तो युगों से माना जाता रहा है कि सोना अगर गंदगी में भी पड़ा दिखाई दे तो उसको उठा लो। बस टीवी चैनेल वाले और फिल्म वाले आजकल यही करने लगे हैं , उनको लत लग गई है गंदगी से पैसा निकाल अमीर बनने की। स्लमडॉग मिलीयेनर की गंदगी अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार दिला देती है।

                गंदगी दो प्रकार की होती है , एक जो साफ नज़र आती है कि ये गंदगी है और दूसरी वो जो देखने में गंदगी नहीं लगती मगर होती वो भी गंदगी ही है। ऐसी गंदगी अधिक बुरी है , वो विचारों को सोच को , मानसिकता को गंदा  कर रही होती है। हर दिन सुबह  उठते ही और देर रात तक तमाम चैनेल वाले लोगों को अन्धविश्वास की खाई में धकेलने का ही काम करते हैं। लोगों की धार्मिक भावनाओं को अपने कारोबार के लिये दुरूपयोग करना उचित नहीं कहा जा सकता। जिनको समाज को स्वच्छ बनाना चाहिये वही उसको प्रदूषित कर रहे विकृत विचार परोस कर। खेद की बात है कि बड़े बड़े नाम वाले अदाकार , खिलाड़ी , अपने और अधिक अमीर बनने की हवस में इस काम में शामिल हो कर लोगों को गुमराह कर रहे हैं। शायद उनको तलाश रहती है कि कैसे और अधिक ये कार्य वे अंजाम दे सकें। सरकार के हर सफाई अभियान का नतीजा एक समान रहता है। गंदगी के ढेर बढ़ते ही जा रहे हैं , गंदगी बेचने का कारोबार भी करोड़ों का खेल है ये कुछ दिन पहले इक टीवी शो में भी बताया गया था। मगर तब इस सोच की विचारों की , मानसिकता की गंदगी की कोई बात नहीं की गई थी , ये उनका निजि मामला जो है। इस पर सब खामोश हैं जो रात दिन जाने क्या क्या शोर मचाते रहते हैं।  

अप्रैल 11, 2014

POST : 433 एक नेता को तुमने खुदा कह दिया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

एक नेता को तुमने खुदा कह दिया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

एक नेता को तुमने खुदा कह दिया
इस तरह दर्द को इक दवा कह दिया ।

ग़म इसी बात का दिल से जाता नहीं
बेवफ़ा ने , हमें बेवफ़ा कह दिया ।

हम सभी के लिये मौत सौगात है
पर सभी ने इसे हादिसा कह दिया ।

दिल का शीशा हुआ चूर जब एक दिन  
जिसने तोड़ा उसे दिलरुबा कह दिया ।

खुद सफीना डुबोई थी उसने , जिसे
हर किसी ने यहां नाखुदा कह दिया ।

नाम तक का मेरे , ज़िक्र करना नहीं
सिल गई इक जुबां आज क्या कह दिया ।

तुम तड़पते रहो आ रहा है मज़ा
और "तनहा" इसे इक अदा कह दिया । 
 

 

अप्रैल 10, 2014

POST : 432 गब्बर सिंह का दर्द ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     गब्बर सिंह का दर्द ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

         गब्बर सिंह परेशान है , वह चुनाव कैसे हार गया। रामगढ़ वालों से उसको वोट क्यों नहीं दिये। उसने रामगढ़ के लिये क्या क्या नहीं किया , इतना विकास किया , तरह तरह के हथकंडे अपनाये , साम -दाम , दंड-भेद , सब-कुछ आज़माया , फिर भी कुछ भी काम न आया। सारे रामगढ़ में उसके भेदिये फैले हुए हैं , वो सब जीत पक्की बता रहे थे। ये अच्छा नहीं किया रामगढ़ की जनता ने , गब्बर सिंह के नाम को डुबो कर रख दिया। अब किस तरह राजधानी में बैठे लोग उसकी दहशत के कायल होंगे। गब्बर सिंह वो डायलॉग याद कर रहा है जो उसने अपने विरोधी के हाथ-पैर तुड़वाने के बाद बोले थे। निकल गई सारी हेकड़ी। मगर अब बात उल्टी हो गई है , गब्बर सिंह को मन ही मन डर लग रहा है कि कहीं रामगढ़ वालों को अपनी ताकत का पता चल गया तो उसका वहां रहना दुश्वार हो जायेगा। गब्बर सिंह ने सब कुछ तो किया था चुनाव में।

                जय और वीरू को ठाकुर से दोगुना पैसे देकर अपने साथ मिला लिया था। दोनों मिलकर उसका प्रचार कर रहे थे , बसंती भी गब्बर सिंह के लिये नाचती थी और वोट मांगती थी। उसके ठुमके देखने वाले भी खूब जमा होते थे हर दिन चुनावी सभाओं में। खुद ठाकुर भाग गया था उसका इलाका छोड़ कर और दूसरे प्रदेश से चुनाव लड़ रहा था। गब्बर सिंह को पूरा यकीन था बाकी सभी की ज़मानत तक ज़ब्त हो जायेगी , मगर खुद उसकी ही ज़मानत बच नहीं सकी थी। गब्बर सिंह को समझ आ गया था कि उसका दोस्त सांभा ठीक ही कहता था कि लोकतंत्र और चुनाव की बात करना खतरे से खाली नहीं है। जंगलराज में तानाशाही ही सही मार्ग है शासन करने का। वीरू ने तो शराब के नशे में एक सभा में ये ऐलान भी कर दिया था कि अगर उसको तानाशाह बना दो तो रामगढ़ की सारी गंदगी ही दूर कर सकता है। तब खुद गब्बर सिंह ने उसको समझाया था कि चुनावी राजनीति में ऐसी सच्ची बात अपनी ज़ुबान पर नहीं लाया करते। जानते तो रामगढ़ वासी भी हैं कि गब्बर का लोकतंत्र तानाशाही से भी खराब होगा।

               हारने के बाद हारने के कारण खोजने का काम हो रहा है। गब्बर सिंह अपने दल के कार्यकर्ताओं से पूछ रहा है कि क्यों उन लोगों ने सही काम नहीं किया चुनाव में , उन्हें शराब , पैसा , गोला -बारूद सभी कुछ तो उपलब्ध करवाया था।  कहां उनका उपयोग नहीं किया गया , क्या चूक हुई है। गब्बर को लगता है जय-वीरू से गठबंधन करना भी उसको नुकसान दे गया है। वो दोनों गब्बर की जीत से अधिक ध्यान खुद अपने लिये राजनीति में जगह बनाने पर देते रहे हैं। चोर-डाकू जब अपराध जगत को छोड़ कर राजनीति में प्रवेश करते हैं तो उनकी ईमानदारी ख़त्म हो जाती है और कुछ भी कर सकते हैं। अब भविष्य में गब्बर को जय-वीरू पर नहीं अपनी बंदूक पर ही भरोसा करना चाहिए।

              गब्बर सिंह ने कब से अपना दल बना लिया था , लोकतंत्र लूट दल नाम से। अपना पहनावा बदल कर कब से शासन कर रहा था। देश भर में ज़मीन जायदाद , विदेश में बैंक खातों में करोड़ों का काला धन जमा कर चुका है। सत्ता में था तो लोग खुद बिना मांगे ही दे जाते थे , लूटने की ज़रूरत ही नहीं थी , मगर लगता रहता था कि दिन-दहाड़े लूटने का अपना ही मज़ा था। लेकिन वो सब कब का छूट गया है , मान लिया था कि अब तो उसका , उसके बाद उसके ही परिवार का शासन ही चलता रहेगा। अचानक गब्बर आकाश से ज़मीन पर आ गिरा है , संभलना कठिन हो रहा है। लगता है डाकू रहना ही ठीक था , अपने गिरोह के साथियों का ऐतबार तो था , यहां राजनीति में किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। जाने कौन किधर से कैसा वार कर दे , आज का गब्बर डर रहा है , कहीं राजनीति के माहिर खिलाड़ी उसको ही न लूट लें।

अप्रैल 06, 2014

POST : 431 गुण नेता के ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

         गुण नेता के ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कौन है जो सफेद झूठ भी बोलता है और सत्यवादी होने का दम भी भरता है। जो हर दिन भ्रष्टाचार करने के साथ साथ ईमानदारी पर भाषण दे सकता है। किसी को खुद अपने हाथ से क़त्ल करने के बाद उसकी लाश पर आंसू बहा सकता है। जिसके कंधे पर चढ़ कर ऊपर पहुंचा उसी को लात मार सकता है। अपने दुश्मनों से हंस हंस कर गले मिल सकता है और जिसको दोस्त बताता है उसी की पीठ में छुरा घोंप सकता है। देश को लूट कर रसातल में धकेलता हुआ भी देशभक्त कहलाता है। जो पानी को आग लगा सकता है , अमृत को विष बना सकता है। जिसको देख चोर डाकू लुटेरे भी थर थर कांपने लगते हैं। जिसका कोई दीन नहीं ईमान नहीं फिर भी हर धर्म की सभा में जिसका सम्मान किया जाता है। जिसके भीतर नफरत क्रोध अहंकार कूट कूट कर भरा होता है मगर उसके चेहरे पर मुस्कान रहती है बोल चाल में शराफत छलकती है। जो तमाम अपकर्म , काले कारनामे करता है फिर भी हमेशा चकाचक सफेद वस्त्रों में बेदाग़ नज़र आता है। जिसका आदर्श वाक्य है , बाप बड़ा न भईया , सब से बड़ा रुपया। जो खुद को हर विषय का जानकार बताता है जबकि उसको अपने स्वार्थ को छोड़ कुछ भी समझ नहीं आता है। खुद को महान समझता है और अपने घोटालों को देश सेवा और विकास बताता है। इंसान होने के बावजूद जिसमें इंसानियत का कोई नाम तक नहीं है। जो बाकी लोगों को कानून का पालन करने को कहता है मगर खुद किसी नियम कायदे कानून को कभी नहीं मानता। लोकतंत्र की आड़ में जो तानाशाही कायम कर अपने परिवार के हित को साधता रहता है लोक हित घोषित करता हुआ। करोड़ों का गोलमाल करने के बाद भी जो निर्दोष साबित हो साफ बरी हो जाता है और इसको न्याय की जीत कहता है। वो जब साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रखने को भाषण देता है तब दंगा-फसाद करवा सकता है। जो दावा करता है कि उसको कुर्सी का कोई मोह नहीं है मगर पद हासिल करने को किसी भी हद तक जा सकता है। कुर्सी बिना जल बिन मछली सा तड़पता है और उसे पाने को सब हथकंडे अपनाता है। जिसको पापों से इस देश की धरती दबी हुई है फिर भी उससे मुक्ति का कोई रास्ता नज़र नहीं आता है। जिसकी कोई विचारधारा नहीं है सत्ता पाना ही एकमात्र ध्येय है जिसका। जो खुद को भाग्य विधाता और जनता को मूर्ख समझता है। गिरगिट की तरह जिसको रंग बदलना आता है। जो चोर से भाईचारा निभाता है बचाने का रास्ता बता कर और साहूकार के घर जाकर वादा करता है चोर को पकड़वाने और सज़ा दिलाने का। अर्थात जिसमें ये सभी अवगुण भरे पड़े हैं तब भी सर्वगुणसम्पन कहलाता है। वह नेता है।

                  नेता केवल नेता होता है , वह न किसी का भाई होता है न किसी का बेटा न ही बाप। वो न किसी का शुभचिंतक है न ही किसी का मित्र।  आदमी होने के बावजूद जो बिच्छू के समान सवभाव वाला हो वही नेता बनता है। वो व्यक्ति दुनिया का सब से खुशनसीब है जिसको कभी किसी नेता से मिलने की ज़रूरत नहीं पड़ी हो। भगवान भी पछता रहा होगा नेता को बनाकर , मगर अब उसपर भगवान का भी कोई बस नहीं चलता है। जो अपने मतलब के बिना अपने बनाने वाले को भी पहचानने से इनकार कर सकता है , ज़रूरत के समय बाप को गधा और गधे को भी बाप बताने वाला ही नेता होता है। इस पहचान को कभी भुलाना नहीं , बचना कहीं आपके आस पास कोई ऐसा खतरनाक प्राणी तो नहीं रहता।  

अप्रैल 04, 2014

POST : 430 शायर दुष्यंत कुमार की याद ( बात सच बोलने की है ) डॉ लोक सेतिया

     शायर दुष्यंत कुमार की याद ( बात सच बोलने की है )

                                         डॉ लोक सेतिया 

सुना होगा आपने भी नाम उस शायर का ,
जिसने अपने देश के , देशवासियों के दुःख दर्द को पूरी शिद्दत से महसूस किया।
वही जिस दुष्यंत कुमार के शेर आप सभी सुनते रहते , सुनाते रहते हर दिन।
 देश में जब भी परिवर्तन की बात होगी दुष्यंत ही याद आयेंगे।

 42 वर्ष हो चुके हैं दुष्यंत को स्वर्गवास हुए मगर वो ज़िंदा है आज भी , विचार कभी मरा नहीं करते हैं। कितने लिखने वालों ने कितनी कितनी किताबें लिख डालीं , मगर जो काम दुष्यंत की 5 2 ग़ज़लों ने लिया वो शायद ही दूसरा कोई कर पाया।

काश आज लिखने वाला , हर इक लिखने वाला अपने आप से सवाल करे कि मैं क्या लिख रहा हूं , क्यों लिख रहा हूं। कभी कभी आता है अवसर कुछ कर दिखाने का अपने वतन की खातिर , अपनी ही खातिर।
अभी साल बाकी है मगर सत्ताधारी दल को इससे भी पहले आगामी चुनाव जीतने की चिंता है। क्या इसको देश हित की राजनीति कहते हैं कि सत्ता हासिल करना मकसद है , सत्ता पाकर देश की जनता से किये वादे निभाना याद नहीं। इक साल दो साल तीन साल और अब चार साल पूरे होने का जश्न। क्या अर्थ है। पांच साल को चुनाव हुआ तो पांच साल होने की खास बात क्या है। अगले साल 2 0 1 9  का चुनाव वो अवसर है , या ऐसा कहना चाहिये कि क्या हम इसको इक अवसर बना सकते हैं। जब हम विचार कर सकते हैं इतने साल बाद हमारा लोकतंत्र कितना परिपक्व हुआ है। दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें अभी भी प्रसांगिक हैं।
 सबसे पहले दुष्यंत की ग़ज़ल उसके शेर दोहराते हैं , शायद कुछ रौशनी दिखला सकें हमें। शुरुआत उनकी पहली ग़ज़ल से :-

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए ,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है ,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे ,
ये लोग कितने मुनासिब हैं , इस सफ़र के लिए।
खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही ,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता ,
मैँ बेकरार हूं आवाज़ में असर के लिए।
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर को ,
ये अहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले ,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

( काश हम सब इसी एक ग़ज़ल को समझ लें , 
और हर दिन याद रखें अपने पूर्वजों के सपनों को )

अब कुछ और शेर दुष्यंत की ग़ज़लों से :-

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
कई फाके बिताकर मर गया जो उसके बारे में ,
वो सब कहते हैं अब , ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा।
कैसी मशालें लेके चले तीरगी में आप ,
जो रौशनी थी वो भी सलामत नहीं रही।

( क्या ये उनके लिए भी नहीं जो उजाला करने की बातें करने को आये थे और 
        जो उम्मीद थी वो भी खत्म की )

ये रौशनी है हक़ीकत में एक छल लोगो ,
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो।
किसी भी कौम की तारीख के उजाले में ,
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल लोगो।
वे कह रहे हैं गज़लगो नहीं रहे शायर ,
मैं सुन रहा हूँ हरेक सिम्त से ग़ज़ल लोगो।

( दुष्यंत के ये शेर जो अब सुनाने लगा बेहद ज़रूरी हैं याद रखना  )

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए ,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी।
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर , हर गली में , हर नगर हर गाँव में ,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं ,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही ,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

( मित्रो इस आग को अब अपने अपने सीनों में जलाना ज़रूरी है )

खामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर ,
कर दी है शहर भर में मनादी तो लीजिए।
फिरता है कैसे कैसे सवालों के साथ वो ,
उस आदमी की जामातलाशी तो लीजिए।
हाथ में अंगारों को लिये सोच रहा था ,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया ,
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो।
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता ,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए ,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
मुझमें रहते करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है ,
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है।
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर ,
झोले में उसके पास कोई संविधान है।
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप ,
वो आदमी नया है मगर सावधान है।
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से ,
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है।

( चलो अब और आगे चलते हैं इस ग़ज़ल को पढ़ते हैं )

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए ,
इस परकटे परिन्द की कोशिश तो देखिए।
गूँगे निकल पड़े हैं ज़ुबाँ की तलाश में ,
सरकार के खिलाफ ये साज़िश तो देखिए।
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें ,
चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिए।

( साये में धूप की आखिरी दो ग़ज़लें पूरी पढ़नी ज़रूरी हैं )

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार ,
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार।
आप बचकर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं ,
रहगुज़र घेरे हुए मुरदे खड़े हैं बेशुमार।
रोज़ अख़बारों में पढ़कर ये ख्याल आया हमें ,
इस तरफ आती तो हम भी देखते फ़स्ले-बहार।
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं ,
बोलना भी है मना , सच बोलना तो दरकिनार।
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं ,
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार।
हालते इनसान पर बरहम न हों अहले वतन ,
वो कहीं से ज़िंदगी भी माँग लाएँगे उधार।
रौनके जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं ,
मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार।
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर ,
हर हथेली खून से तर और ज़्यादा बेकरार।

( चलिये इस अंतिम ग़ज़ल को भी पढ़ लें )

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं ,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।
मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ ,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
तेरी ज़ुबान हैं झूठी जम्हूरियत की तरह ,
तू एक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं।
तुम्हीं से प्यार जताएं तुम्हीं को खा जायें ,
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं।
तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर ,
तू इस मशीन का पुर्ज़ा है , तू मशीन नहीं।
बहुत मशहूर है आयें ज़रूर आप यहाँ ,
ये मुल्क देखने के लायक तो है हसीन नहीं।
ज़रा-सा तौर-तरीकों में हेर फेर करो।
तुम्हारे हाथ में कालर हो आस्तीन नहीं।

( साये में धूप से साभार )