मई 04, 2014

इक हमदर्द अपना , इक हमराज़ अपना ( कहानी ) डा लोक सेतिया

        इक हमदर्द अपना  ,  इक हमराज़ अपना  ( कहानी )

                               डा लोक सेतिया

       संदीप आज फिर बहुत उदास है , अकेला है। कितनी बार उसको यही मिलता है , बार बार संदीप किसी से दोस्ती करता है , और बार बार उसको दोस्त कोई नया ज़ख्म दे जाते हैँ। काश आज उर्मिला होती उसका दर्द बांटने को। जब भी परेशान होता है संदीप , उसे याद आ जाती है उर्मिला की वो कसम खुदखुशी न करने की। कभी कभी सोचता है संदीप कि क्या सच में वो इसीलिये जी रहा है या ये इक बहाना है खुदखुशी न करने का। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह मरने से डरता है , उसके पास जीने का कोई भी मकसद ही नहीं है , वो बस इसलिये ज़िंदा है क्योंकि ख़ुदकुशी करने का साहस ही नहीं कर पा रहा। उर्मिला की वो कसम केवल इक बहाना है। संदीप को याद है वो दिन जब वो अपनी ज़िंदगी से बेहद निराश हो चुका था और ख़ुदकुशी करने ही वाला था कि उसकी खिड़की के बाहर से किसी ने आवाज़ दी थी उसका नाम लेकर और कहा था कि उसे इक ज़रूरी बात करनी है थोड़ी देर को अपने कमरे का दरवाज़ा खोल दो। बिना कुछ भी समझे संदीप ने आपने कमरे का दरवाज़ा खोल दिया था। उर्मिला बदहवास सी भीतर चली आई थी। आकर बोली थी मुझे जानते तो होगे तुम्हारे घर की साईड वाली गली में ही रहती हूँ मैँ। हां देखा है आपको अक्सर इधर से गुज़रते हुए , संदीप ने कहा था , बतायें क्या बात करना चाहती हैं मुझसे।

                उर्मिला ने कहा था क्या आप मेरे साथ फवारे वाले पार्क तक चल सकते हैं , यहां बात करना उचित नहीं होगा। संदीप आपसे निवेदन है कि बस थोड़ी देर मेरे साथ चलकर मेरी बात सुन लो , उसके बाद चाहे जो मर्ज़ी आप कर सकते हैं , मुझे मालूम है आप आज ख़ुदकुशी कर रहे थे। संदीप ये सुन कर चकित रह गया था , बोला था कि आपको कैसे पता चला और आप मेरा नाम भी जानती हैं , मुझे तो आपके बारे कुछ भी पता नहीं है। मेरा नाम उर्मिला है , अब बाकी बातेँ  अगर कहीं बाहर चल कर करें तो अच्छा होगा। और वो दोनों कुछ दूरी पर उस पार्क में चले आये थे। पार्क के सबसे पीछे वाले कोने में जहां सीढ़ियां बनी हुई थी , जाकर बैठ गये थे दोनों। संदीप पूछता उस से पहले ही उर्मिला बोली थी , संदीप जी आपको हैरानी होगी कि मुझे आपके बारे बहुत कुछ पता है। मेरा कमरा आपकी खिड़की के ठीक सामने है और इस तंग गली जो हमारे दोनों घरों के बीच है के बाहर से मैंने कितनी बार आपकी बातेँ सुनी हैं , जब भी आपके दोस्त आपको बिना किसी कारण के बुरा भला कहते रहे और आप चुप चाप सुनते रहे तब मेरी पलकें भीगती रही हैं। ये दर्द मुझे भी मिला है उम्र भर , तभी मैंने आपके दर्द को हमेशा अपना समझा है। जानती हूँ आपको किसी सच्चे दोस्त की तलाश है और ये भी जानती हूँ कि चाह कर भी मैँ वो नहीं बन सकती। मगर मैं चाहती हूँ की हम दोनों इक दूजे के हमदर्द और हमराज़ बन कर , आपस के दुःख - दर्द बांटा करें। मैंने ये पहले भी कई बार कहना चाहा है मगर कभी कह नहीं पाई , आज खिड़की से देखा आपको छत से रस्सी टांगते हुए और ख़ुदकुशी करने की कोशिश करते हुए , तब लगा ये शायद आखिरी अवसर है इक पहल करने का। मैं आज अपना हाथ बढ़ा रही हूं , क्या मेरा हाथ थामोगे मेरे हमदर्द और हमराज़ बनोगे हमेशा के लिये। आपको हो न हो मुझे आप पर पूरा यकीन है कि अगर कोई मेरा राज़दार और हमदर्द बन सकता है तो वो केवल आप ही हैं दूसरा कोई शायद ही मिले जीवन में। संदीप ने खामोशी से थाम लिया था वो हाथ जो उर्मिला ने उसकी तरफ बढ़ाया था। शायद इसकी ज़रूरत आज संदीप को भी बहुत थी। तब उर्मिला ने कहा था कि आज आपको मुझे ये वादा करना ही होगा कि भले कितनी ही मुश्किलें आयें , कितनी परेशानियां हों जीवन में , आप कभी हार नहीं मानोगे जीवन से। मुझे जब भी कोई मुश्किल होगी मैं आपको ज़रूर बताया करूंगी और आप भी मुझसे कभी कोई परेशानी नहीं छिपाओगे। और तब से संदीप और उर्मिला इक ऐसे नाते में बन्ध गये जिसका कोई नाम नहीं था। हां उसके बाद संदीप की खिड़की हमेशा खुली रहती थी , और जब भी दोनों को कोई बात करनी होती दोनों उसी पार्क के कोने में जाकर बैठ जाते और बातें किया करते। संदीप की तरह ही उर्मिला को भी हर किसी से नफरत ही मिली थी बिना किसी कारण। मगर जब से उर्मिला इस बेदर्द दुनिया से चली गई हमेशा के लिये तब से संदीप को उसकी कमी हर पल खलती है। अब उसको जीना और भी कठिन लगने लगा है , उसका अपना तो कोई कभी भी था ही नहीं। मगर इक हमदर्द और हमराज़ तो था , जो काफी था किसी भी हालात में ज़िंदा रहने के लिये।