जब चले जायेंगे मेले के दुकानदार ( तरकश ) डा लोक सेतिया
मेला कुछ दिन का ही होता है , जब कहीं मेला लगा हो तब वहां बहुत चहल पहल होती है , भीड़ होती है , शोर-शराबा होता है। मगर जब मेला खत्म हो जाता है तब वहां का मंज़र ही और होता है। मेले में सब कुछ मिलता है , खेल-तमाशा भी होता है और खाने-पीने से लेकर सभी तरह का सामान भी बिकता है। मेले में सामान बेचने वाले दुकानदार भी अपनी तरह के ही होते हैं। पीतल पर सोने की पालिश किये गहने मेले में असली सोने के गहनों से भी सुंदर दिखाई देते हैं। मेले भी कई तरह के होते हैं , कभी गांव में हर साल लगता था मेला। मेला नाम की फिल्म भी बनी थी शायद दो बार , बहुत सारी फिल्मों की कहानी मेले से ही शुरु होती रही है। मेले में दो भाईयों का बिछुड़ना , ये कीतनी बार देखा है फिल्मों में। मेला देखने का शौक बच्चों से लेकर बूढ़ों तक हमेशा होता ही है। माशूक़ा महबूब से मिलने मेले में जाती है और आशिक़ से मेले से चांदी का छल्ला दिलवाने को कहती है , कहानी में। ये और बात है कि इधर प्यार मॉल में कितनी मंज़िल ऊपर चढ़ता है महंगे उपहार की खरीदारी से लेकर फ़िल्म देखने खाने पीने पर महीने भर की कमाई खर्च करवाता है।राजधानी दिल्ली में तो प्रगति मैदान इक जगह ही मेलों के लिये है , जहां हर दिन कोई न कोई मेला लगा ही रहता है। करीब दो महीने से देश में भी इक मेला लगा हुआ है , चुनाव का , लोकतंत्र का मेला। इसमें भी बहुत कारोबारी करोबार करते नज़र आ रहे हैं। नेता , राजनैतिक दल ही नहीं टीवी चैनेल से लेकर अखबार वाले तक सब का धंधा चोखा चल रहा है। कई तो इतना कमा जाएंगे कि फिर बहुत दिन आराम से बैठ कर खाते रहेंगे। सबकी दुकानें सजी हुई हैं , दिन-रात उनका माल बिक रहा है मुंह मांगे दाम पर। कोई मोल भाव की बात नहीं करता , उनके पास फुर्सत कहां है इसके लिये। लेना हो तो लो वर्ना आगे बढ़ो , भीड़ मत करो ऐसा कहते हैं। बस खत्म होने को है ये मेला , देश की जनता मस्त रही बहुत दिन इस मेले में। अब देखते हैं कि मेले के बाद क्या मिलता है देश को आम जनता को। आपने कभी तो देखा होगा उस जगह का नज़ारा जहां लगा हुआ था कोई मेला दो दिन पहले , वहां लगता है जैसे कोई तबाही हुई हो। अभी तलक देश की जनता को भी वही मिलता रहा है , इस बार क्या होगा , देखना है। अच्छे दिन ढूंढते ढूंढते थक गए और मिले भी तो बदहाली के दिन नसीब की बात है। तब राज़ खुला अच्छे दिन जुमला था सच में कोई अच्छे दिन मिलते नहीं जनता को अच्छे दिन उन्हीं के होते हैं जिनकी सत्ता सरकार होती है।
मेले से लोग जिस वस्तु को सस्ता समझ खरीद लाते हैं , जब वो दो ही दिन में बेकार हो जाती है तब समझ आता है कि महंगा रोये एक बार सस्ता रोये बार बार। मेले से खरीदे सामान की कोई गारंटी नहीं होती है न ही उसको बदला या वापस किया जा सकता है। कभी कभी शहर के बाज़ार में भी सेल लगती है भारी छूट पर बाकी बचे सामान की , तब उसपर भी मेले वाले बाज़ार के नियम लागू होते हैं। मेला कोई भी हो हर दुकानदार मुनाफे में रहता है। चुनाव के मेले में भी सब नेता , सभी दल फायदे में ही रहते हैं , चाहे सत्ता मिली हो चाहे गई हो हाथ से। इतने साल घोटालों में लूट की ये सज़ा कुछ भी नहीं। लेकिन चुनाव के इस मेले से आम लोग अपना बहुमूल्य वोट देकर जो जो वादे , उम्मीदें लेकर आये हैं वो सच साबित हों इसकी कोई गारंटी नहीं है। न ही आपकी पूंजी , आपका वोट आपको फिर वापस मिल सकता है , जिसको दिया वो पांच वर्ष तक उसी का ही है। चुनाव जीत कर नेता बाकी सब भूल कर सत्ता की दौड़ में शामिल हो जाते हैं , कल जो विरोधी थे आज सहयोगी बन जाते हैं। बहुमत की चिंता , सब को खुश रखने की बात , किसको क्या क्या मिले ये ही मकसद बन जाता है। सत्ता और शासन का चरित्र कुर्सी का चरित्र ही होता है , कुर्सी वहीं रहती है , उसपर बैठने वाले बदलते रहते हैं। जब लोग कुर्सी पर आसीन व्यक्ति को सलाम करते हैं तो वे वास्तव में कुर्सी को ही सलाम कर रहे होते हैं।
सवाल यही है , कि पहले की तरह इस बार भी क्या सत्ताधारी दल का नाम और कुर्सियों पर बैठने वाले नेताओं के नाम ही बदलेंगे या सच में कुछ बदलाव भी देखने को मिलेगा। क्या शासन का तौर-तरीका भी बदलेगा , या अब भी नेता शासक बन कर दाता और जनता याचक बनी रहेगी। क्या जनता मालिक की तरह अपना अधिकार पा सकेगी , क्या आज़ादी के सतसथ वर्ष बाद कुछ बदलेगा। क्या सच अच्छे दिन आयेंगे। क्या वो हालत नहीं रहेगी कि जनता की थाली मात्र चंद रूपये की और सत्ताधारी लोगों की हज़ारों रूपये की। क्या योजना आयोग का शौचालय लाखों का और जनता को खुले मैदान में या किसी रेल की पटड़ी किनारे जाने का अंतर नहीं रहेगा। क्या जो जो नेता चुनाव में जनता की समस्यायें हल करने , उसको न्याय देने , सुरक्षा देने की बातें भाषण में कह रहे थे वे अपनी बात याद रखेंगे , या सब भुला कर खुद अपने लिये सुख सुविधा , सुरक्षा - अधिकार पाने पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे। क्या इस गरीब देश का राष्ट्रपति सैंकड़ों कमरों वाले आलीशान महल में रहेगा जिसपर प्रतिदिन बीस लाख रूपये रख रखाव पर खर्च होते हैं। और उससे गरीबों के हमदर्द होने की आपेक्षा करना फज़ूल होगा। क्या देश के प्रधानमंत्री के निवास का बिजली का बिल लाख रूपये महीना ही रहेगा और वो सरकारी खर्चों में कटौती की बात भी किया करेगा। क्या सांसदों-विधायकों का शाही खर्च जारी रहेगा , जनता के पैसे को यूं ही बर्बाद किया जाता रहेगा। देश का सब से बड़ा घोटाला जिसका आज तक कभी किसी ने ज़िक्र तक नहीं किया और जो हमेशा से चल रहा है , वो सरकारी विज्ञापनों का अपने प्रचार और मीडिया को प्रभावित करने का कार्य बंद होगा कभी। अभी कितनी उम्र ये मीडिया वाले इन बैसाखियों का सहारा पाकर ही चल सकेंगे। इस देश की जनता कब तक ये अनचाहा बोझ ढोती रहेगी। नेता-अफ्सर कब तक सफ़ेद हाथी बने रहेंगे। इनका राजा महाराजा की तरह रहना क्या अमानवीय अपराध नहीं है उस देश में जिसमें आधी आबादी को दो वक़्त रोटी तो क्या पीने को साफ पानी तक मिलता नहीं। जब करोड़ों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं , जब जनता को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा तक नहीं मिलती है तब ये बातें करते हैं , देश की आर्थिक शक्ति की। क्या ये देश कुछ मुठी भर लोगों की जागीर है , गरीब-अमीर में कितना अंतर हो ये कभी तो तय करना होगा , अगर वास्तव में सभी नागरिकों को समानता का हक देना है।
चुनाव का मेला भले निपट गया हो , ऐसे कई प्रश्नों की धूल अभी बाकी है। इसको क्या अभी भी अनदेखा किया जा सकता है। मेले के उजड़ जाने के बाद वहां भी बहुत कुछ ऐसा ही होता है जिसको कोई मुड़ कर नहीं देखता। मगर जब तक इन कठिन सवालों का हल नहीं खोजते , अच्छे दिन कैसे आयेंगे। फिर पांच साल बाद मेला लगाया वही दुकानदार देशभक्ति और धर्म की दुकान सजाकर दोबारा अपना कारोबार कर खूब कमाई कर गए लोग हाथ मलते रह गए। चुनावी मेला भी गांव के मेले जैसा होता है भीड़ और शोर में खो जाते हैं लोग और अपनी जेबें खाली कर ले आते हैं बनवटी नकली सामान की तरह मतलबी लोगों की कोई सरकार। मेले के खत्म होते ही बाकी रह जाता है ऐसा मंज़र जिसकी कल्पना नहीं की होती है।
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