नियम कानून लागू कब होते हैं ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
आज इक खबर छपी है शाम के अखबार में। हरियाणा सरकार ने फतेहाबाद नगर में जो सरकारी भूमि दो संस्थाओं को देनी है वो कलेक्टर रेट पर दी जायेगी और इस शर्त पर कि उसका उपयोग वाणिजयक कार्य के लिये नहीं किया जा सकेगा। ये सही बात है , मगर सवाल और भी है कि पहले जिन जिन को सरकार ने भूमि दी थी धर्मशाला बनाने के लिये क्या उन पर भी यही शर्त लागू थी। ज़रूर ये शर्त तब भी रही होगी , मगर क्या इसका पालन किया गया। हुआ ये कि तब धर्मशाला बनाने से पहले ही वहां मार्किट बना दी गई , और धर्मशाला भी कैसी जिसमें कोई मुसाफिर बिना कमरे का किराया दिये रात भर नहीं रुक सकता। जब संत महात्मा तक धर्म प्रचार के नाम पर कारोबार करने लगे हों तब बाकी समाज से क्या उम्मीद की जाये। धर्म खुद लोभ लालच के जाल में भटक रहा है। यहां एक सवाल और भी है कि क्या सरकार का समाजिक कार्य के लिये भूमि देना जनहित की बात है अथवा वोट बैंक का मोह। क्योंकि जब इन दोनों संस्थाओं को भूमि आबंटित होने की बात हुई थी तब संस्थाओं वाले सत्ताधारी नेताओं का आभार प्रकट कर रहे थे और उपकार मान रहे थे जैसे कि भूमि वो अपनी निजि दे रहे हों। अगर देश समाज को गलत दिशा में जाने से रोकना है तो ये तय करना होगा कि जिस भी संस्था को जो भूमि जिस काम के लिये दी जाये और जिन शर्तों पर उसका वही उपयोग ही हो। अगर कोई दुरूपयोग करे तो उसको रोका जाये। क्या सरकार तैयार है इसके लिये कि जो सरकारी भूमि को धर्मशाला बनाने को लेकर वाणिजयक उपयोग कर रहे हैं राज्य भर में , उनपर कठोर करवाई हो , उनके अनुचित उपयोग को बंद करवाया जाये। या फिर यहां भी वही दोहराया जायेगा।देश में सरकार अर्थात सत्ताधारी नेता अपनी साहूलियत से नियम कानून ताक पर रख लेते हैं। सरकारी विभाग अपने मास्टर प्लान में बदलाव कर पार्क की जगह संस्थाओं को आबंटित करते हैं , बाज़ार की कीमती ज़मीन किसी को धर्मशाला बनाने को दे देते है और उस का उपयोग दुकानें बनाकर किया जाता है। कोई कानून ऐसे ख़ास लोगों के समाजिक कार्य की जगह किराये की दुकानें बनाने को रोकता नहीं है। मगर कोई अपने घर या कमर्सिअल स्थान में अपनी खुद की जगह में नक्शे में बदलाव करते हैं तो कीमत से बढ़कर जुर्माना लगा दिया जाता है। क्या नियम आम नागरिक पर लागू किये जाने को ही बने हैं , खुद नियम लागू करने वाले किसी नियम का पालन नहीं करते। हर आम आदमी ये देख कर बेबस महसूस करता है , कहीं कोई कानून नहीं पालन करवाने वाले सरकारी विभाग के अधिकारी जब चाहे उस पर कोई भी आरोप लगा देते हैं। तीस चालीस साल बाद नक्शा पास करवाने की बात क्या उचित है। सरकारी विभाग बदल गए और नियम कानून भी , ऐसे में पचास साल पहले किसी विभाग द्वारा बेचे प्लाट पर जो विभाग बनाया ही उस की बोली के दस साल बाद हो और इमारत निर्माण होते समय उस एरिया पर उसका नियम लागू ही नहीं हो , जब भी मर्ज़ी नोटिस देकर परेशान करते हैं वो भी तमाम लोगों को नहीं किसी एक को चुनकर जो विभाग को जनहित में उसी के प्लॉट्स और फुटपाथ पर अवैध कब्ज़े करने वालों की सूचना देता हो। ये तो अपने पद और विभाग के नियम कानून की आड़ में उसे तंग करना है जो विभाग को उसी के प्लॉट्स पर अवैध कब्ज़े की जानकारी देता है , अधिकारी विभाग के प्लॉट्स फुटपाथ पर सड़क पर कब्ज़ा करने वालों को कुछ भी कहता मगर अपने प्लाट में बनाये निर्माण पर तीस साल बाद नोटिस भेजता है।
किसी भी समाज में सरकार और विभाग इस तरह काम नहीं कर सकते हैं। किसी को सब माफ़ और किसी को किसी भी तरह सज़ा देना सच बताने पर।