आशिक़ी का जुनून है ( अनकही ) डॉ लोक सेतिया
किसी दिन हम अपनी कहानी लिखेंगे , हम अपनी प्यास को तब पानी लिखेंगे ।
जब किसी को आस पास कहीं से भी प्यार नहीं मिलता तब वो अपनेपन को तरसता है और जब भी कोई दो बोल प्यार के बोलता है तब उसी का होकर रह जाता है और रहना चाहता है जीवन भर को लेकिन उम्र भर समझ नहीं पाता कि सपनों की बातें वास्तविक जीवन में हक़ीक़त नहीं बनती हैं । घड़ी दो घड़ी पल दो पल या कुछ दिन साल महीने का साथ सभी निभाते हैं और अचानक किसी मोड़ से राहें अलग अलग हो जाती हैं । कुछ लोग नासमझ नादान होते हैं और अपनी नादानियों से प्यार करते हैं बचपन से लेकर बड़े होने तक खोये रहते हैं पुरानी यादों में जो ख़्वाब ही थे वास्तविकता कभी नहीं बने ये बात ऐसे लोग मानते ही नहीं । बस जहां जो भी प्यार से मिला उसी के हो जाते हैं और दिल में बसाते हैं उनको दिल से निकालते नहीं कभी भी भले समझाते हैं अनुभव कि कोई किसी का हमेशा को होता नहीं है यही दुनिया का चलन है । जिनको चाहा दिल में जगह दी उनको पराया समझना उनको नहीं आता कभी भी । कोई दोस्त कोई अन्य किसी रिश्ते से जुड़ जाता है ये सिलसिला चलता रहता है ज़माने की तरह कोई दूसरा मिल गया तो पहले जितने संगी साथी थे उनको छोड़ना आदत नहीं होती कुछ लोगों की । कितने सालों बाद फिर से अचानक पुराने लोग मिल जाएं तो यूं लगता है कभी जुदाई आई ही नहीं , दुनिया को गिले शिकवे शिकायत याद रहते कुछ विरले ही लोग होते हैं जिनको सिर्फ दोस्ती प्यार अपनापन और जिस जिस ने जैसे जितना साथ निभाया बस वही रहता है याद ।
मन की बातें कभी किसी से कहना नहीं आता हर किसी को वक़्त की धारा संग बहना नहीं आता । भूले से कभी दिल में कुछ आये भी तो दिल को समझा लेते हैं सब को दर्द की दौलत भी कहां नसीब होती है । ज़िंदगी के सफ़र में ग़म ही तो साथ निभाते हैं खुशियां कब रहती है हमेशा टिककर । क्या हुआ जो दिल बार बार टूटता रहा ये तजुर्बा भी कोई थोड़ा तो नहीं जिस ने दामन छुड़ाया उसको नहीं मना सके पर कभी हाथ पकड़ कर छोड़ा तो नहीं । किसी भी किताब पर किसी पन्ने पर इक अपना ही नाम नहीं लिखा रहता पलटते हैं ज़िंदगी की किताब के पन्ने तो हर पन्ने पर कोई नया कभी फिर से वही पुराना कोई नाम शक़्ल सूरत बदल दिखाई देता है । हर अध्याय कुछ और कहानी कहता है कोई सामने नहीं होता फिर भी बंद कमरे में रहता है कोई तो है जो शायद इस दुनिया में नहीं है तब भी अपने दुःख दर्द समझता है पीड़ा को सहता है । कभी नहीं सोचा न कभी जाना ज़माना पागलपन दीवानगी कहता है । सपनों का खूबसूरत महल ज़ेहन में रहता है कभी नहीं ढहता है कौन परायों को अपना समझता है चले आओ या मुझे बुला लो बार बार कहता है । कभी कोई खिड़की कभी कोई दरीचा कभी छत का कोई कोना कभी बारिश कभी तपती गर्मी कभी यूं ही किसी शाम किसी के साथ कितनी यादें जुड़ी को सीने में सबसे छुपाए रखते हैं । जिनको नहीं वापस लौटना उनकी आस लगाए रखते हैं शाम की सैर वो बहता पानी दो किनारे लंबे होते साये हमेशा याद रखते हैं ।
कभी अपनी मुहब्बत की रुसवाई नहीं करते सितम करने वाले को हरजाई नहीं कहते । सब की अपनी कोई मज़बूरी थी बस और कोई नहीं दूरी थी । कुछ ख़त लिखे थे कुछ मिले थे सभी को हमेशा को जाने कब कहां रख दिया कि ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे किसी को खुद को भी नहीं । अपने देखा है एकांकी नाटक जिस में बस इक किरदार सामने रहता है बाक़ी सभी कल्पना से निर्मित होते हैं दर्शक को अनुभव होता है कितने और हैं मगर सब काल्पनिक होता है । ऐसे ही कुछ लोग जिनको कोई नहीं मिलता कोई बात तक नहीं करता कोई देखता नहीं किस तरह अकेलेपन को झेलता है कोई शख़्स अपने लिए इक ख्याली दुनिया बसा कर जीते हैं दुनिया को पता ही नहीं चलता कि उनकी कहानी में कोई भी वास्तविक किरदार नहीं रहा सपनों में जीने की आदत क्यों कैसे किसी को पड़ जाती है क्या पता शायद ज़िंदा रहने को कोई और तरीका उनको सूझता नहीं है तो खुद से अपने आप से बातें करते हैं , कभी झगड़ते हैं खुदी से कभी खुद को मना लेते हैं । हर रस्म निभा लेते हैं ख्वाबों को सजा लेते हैं । जिन का कोई वजूद नहीं कुछ होते हैं उनसे नाता बना लेते हैं निभा लेते हैं तन्हाई में उन बातों से खुद को बहला लेते हैं मुहब्बत से मुहब्बत का कहां सब लोग सिला देते हैं ।
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1 टिप्पणी:
सहमत👌👍 बढ़िया
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