मेरी भी किताब बिकवा दो ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया
तिथि उनतीस नवंबर सन दोहज़ारदो , अख़बार दैनिक भास्कर। मेरा पुराना व्यंग्य जो तब छपा था ये उसका नया संस्करण है। इक शोर सा मचा हुआ है , किन्हीं दो लोगों ने किताबें लिखी हैं अपने सरदार मनमोहन सिंह जी को निशाना बनाते हुए। सच पूछो तो कुछ भी नया नहीं है , कोई राज़ की बात नहीं है कि पिछले दस साल से विश्व का सब से बड़ा लोकतंत्र चयन से नहीं मनोनयन से चल रहा है। मुझे जाँनिसार अख़्तर जी की इक ग़ज़ल का मतला याद आ रहा है। "वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं , जो इश्क में तालिब नहीं मतलूब रहे हैं "। (मतलूब का अर्थ होता है मनोनीत ) ।
कहने का अभिप्राय ये कि ऐसा सदा से होता रहा है कई जगह , मगर लोकतंत्र में भी जनता नहीं चुने बल्कि कोई और उसपर अपनी मर्ज़ी का शासक थोपे ऐसा कहीं और शायद ही होता हो अपने देश को छोड़कर। तो सवाल उन दो किताबों का है जिनको लिखने वाले अपने देश के प्रधानमंत्री के साथ शासन में सरकारी उच्च पदों पर रहने के बाद सेवा निवृत होने के बाद उनका काला चिट्ठा खोलने का दावा कर रहे हैं। क्या वे सच्चे देशभक्त हैं , ईमानदार हैं। सोचना तो पड़ेगा , अगर उनको अपने कर्तव्य की राष्ट्र के प्रति निष्ठा की परवाह होती तो वे आज तक चुप नहीं बैठे रहते। देश को लूटने वालों के हमराज़ नहीं बने रहते , जब तक अपनी नौकरी का सवाल था। अब जिनको नौकरी देश हित से बड़ी लगती हो , उनका किताब लिखने का मकसद भी कुछ और भी हो सकता है। चलो मान लो वे जो भी बता रहे हैं सही है तब क्या वो भी चुप रहने के अपराधी नहीं हैं। मगर यहां मनमोहन सिंह जी की चूक यही है कि उनको ये मालूम नहीं था कि हर चीज़ की तरह इसका भी उपाय है जो वे कर नहीं सके। उनको हरियाणा वालों से सबक लेना चाहिये था। क्या आपको मालूम है कि यहां कोई भी कैबिनिट सचिव पिछले नौ साल में सेवा निवृत नहीं हुआ है। सब को आगे कार्यकाल बढ़ा कर बनाये रखा गया है शासन में अपना सहयोगी। यकीन करें ये दोनों महानुभव भी अगर नौकरी में रहते तो किताब लिखने को फुर्सत ही नहीं मिलती। तभी कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर। अब उनकी किताबों की चर्चा देश विदेश में होगी और उससे उनको क्या क्या हासिल होगा ये तो आने वाला वक़्त ही बतायेगा , मगर मैं आपको वो पुरानी बात ग्यारह साल बाद फिर से सुनाता हूं। अब वो व्यंग्य।
मुझे भी अपनी किताब बेचनी है। अब मुझे ये भी पता चल गया है कि किताब कैसे बेची जा सकती है। बस एक सिफारिश का पत्र यू.जी.सी. चेयरमैन का किसी तरह लिखवाना है। जैसा १६ अक्टूबर २००२ को यूजीसी के अध्यक्ष अरुण निगवेकर ने लिखा है सभी विश्व विद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थाओं को , प्रधानमंत्री जी की जीवनी की पुस्तक खरीदने की सलाह देते हुए। "जननायक " किताब की कीमत अगर चार हज़ार रुपये हो सकती है तो मुझ जैसे इक जनलेखक की किताब चालीस रुपये में बिक ही सकती है। कुछ छूट भी दे दूंगा अगर कोई सौ किताबें एक साथ खरीद ले। मुनाफा न सही छपाई का खर्च तो निकल ही आएगा। मुफ्त में मित्रों को उपहार में देने से तो अच्छा है।समस्या यही है कि यूजीसी वाले मुझे नहीं जानते , मैं उनको जनता हूं ये काफी नहीं। मगर अभी पूरी तरह कहां जानते हैं लोग उसको। अभी तक सुना था वो अनुदान देते हैं , किताबें भी बिकवाते हैं अब पता चला है। इक सत्ताधारी मुझे समझा रहे थे कि ये ज़रूरी होता है , बिना प्रचार के कुछ नहीं बिकता , साबुन तेल से इंसान तक सब को बाज़ार में बिकने को तरीके अपनाने ही पड़ते हैं। अब प्रधानमंत्री जी के प्रचार के लिये क्या इस देश के गरीब चार हज़ार भी खर्च नहीं कर सकते। आखिर कल यही तो इतिहास में शामिल किया जायेगा। उधर पुस्तकालय वालों का कहना है कि उनको कोई एक दो प्रति थोड़ा खरीदनी होगी , थोक में खरीदनी होती है। यूजीसी कहेगी तो प्रकाशक से छूट या कमीशन कौन मांग सकता है। मुझे मेरी बेटी ने बताया कि दूसरी कक्षा में पास होने के लिये उसकी अध्यापिका ने भी सभी छात्रों को एक किताब खरीदने को विवश किया था। मैंने जब स्कूल के अध्यापक से पूछा कि आप कैसे किसी किताब को ज़रूरी बताते हैं तो उनका कहना था कि जो प्रकाशक उनसे मिलता है आकर उसी की किताब को ही अच्छा बता सकते हैं जो मिला ही नहीं आकर उसकी किताब को किसलिये सही बतायें। उनकी बात में दम है , मुझे भी किसी तरह यूजीसी के चेयरमैन से जानपहचान करनी ही चाहिये। क्या खबर वे भी यही सोचते हों कि मैं उनको मिलने आऊं तभी तो वे मेरी किताब की सिफारिश करें। शायद वो इसी इंतज़ार में हों कि मैं मिलूं तो वे पत्र जारी करें।
सोचते सोचते उन नेता जी की याद आई जिनकी सुना है राजधानी तक पहचान है। लगा कि वे फोन कर देंगे तो बात बन सकती है। मगर नेता जी को पता ही नहीं था कि यूजीसी किस बला का नाम है। वे आठवीं पास हैं , कभी सुना ही नहीं था कि ये किस चिड़िया का नाम है। फिर ध्यान मग्न हो कुछ सोचने लगे , अचानक नेता जी को कोई उपाय सूझा जो वो मुझे पकड़ कर अपने निजि कक्ष में ले गये। मुझे कहने लगे तुम चिंता मत करो , तुम जितनी किताबें छपवाना चाहो छपवा लो , मैं सारी की सारी खरीद लूंगा। अगर मैं भी उनका एक काम कर दूं। वे चाहते हैं कि मैं उनकी जीवनी लिखूं जिसमें उनको नेहरू -गांधी से भी महान बताऊं। मैं अजीब मुश्किल में फंस गया हूं , इधर कुआं है उधर खाई। घर पर आया तो देखा श्रीमती जी ने रद्दी वाले को सारी किताबें बेच दी हैं तोल कर , पूरे चालीस किलो रद्दी निकली मेरी अलमारी से आज शाम को।
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