जनता के मन की बात ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
बड़े लोगों के बड़े काम धंधे होते हैं उनके पास कहने को कितनी बातें होती हैं लेकिन साधरण गरीब इंसान के पास भी कहने को कुछ होता है मगर वो चुप रहता है ये समझ कर कि कहीं बड़े लोगों को बुरी नहीं लग जाएं । ये डायलॉग मैंने इक फ़िल्म से उधार लिए हैं जिस में नायिका को अपमानित कर घर और नौकरी से इक अभिनेता की माता जी निकाल देती हैं और खबर होते ही अभिनेता मनाने को नायिका के पीछे पीछे अपनी बड़ी गाड़ी से चले आते हैं । आपको सब कुछ हासिल है सत्ता के शिखर पर बैठे कुछ भी नहीं करना सूझे तो मन की बात करने को रेडियो है भले आजकल लोग रेडियो नहीं सुनते तब भी तमाम टीवी चैनल मन की बात का प्रसारण करते हैं । तीसरी कसम फ़िल्म में नायक नायिका से पूछता है मन समझती हैं ना आप , लेकिन सच कहें तो आपके मन की बात जनता तो क्या लगता है आपको भी समझ आई नहीं अभी तलक । मन रे तू काहे ना धीर धरे , वो निर्मोही मोह ना जाने जिनका मोह करे । मन चंचल होता है मन की रफ़्तार से तेज़ कोई नहीं दौड़ सकता है , पलक झपकते ही किसी अलग दुनिया में पहुंच जाता है । इक भजन है काजल फ़िल्म का , प्राणी अपने प्रभु से पूछे किस विधि पाऊं तोहे , प्रभु कहे तू मन को पा ले पा जाएगा मोहे , तोरा मन दर्पण कहलाये । आपका मन जानता है आपकी चाहत क्या है बल्कि क्या नहीं चाहते हैं आप जितना भी मिलता है थोड़ा लगता है ये इक मृगतृष्णा है भागने को विवश करती है जबकि सभी जानते हैं जिस जगह से शुरू की थी दौड़ घूम कर वापस उसी जगह पहुंचना नियति है । कभी कभी लगता है कि जिसे आपने मन की बात नाम दिया है वो वास्तव में मन की नहीं किसी अन्य उलझन की बात हो सकती है । ऐसा होता है आदमी को जब अपनी उलझनों से बचना होता है तब किसी काल्पनिक पुरानी कहानी किसी घटना की चर्चा करते हैं । लेकिन जो भी करते हैं ज़िंदगी की उलझन सुलझती नहीं है और आपकी तो राजनीति की भूल भुलैयां की उलझनों की कोई सीमा नहीं होती उनसे निकलना भागना चाहते हैं फिर भी कोई रास्ता नहीं दिखाई देता है ।
मन को काबू में कौन रख सका है इंसान क्या भगवान भी मन की थाह नहीं पा सकते हैं , संत महात्मा सन्यासी उपदेशक मन से सभी हारे हैं । मनभावन दुनिया कभी किसी को नहीं हासिल हुई कितने लोग उसकी खोज में भटकते रहे हैं । दिल्ली का लुटियन ज़ोन क्या जाने मन की राहों को बड़ी कठिन है डगर पनघट की । मन की मनमानी कब किसे कहां से कहां ले जाये किसी को नहीं पता , मन से मन की बात मन से मन का मिलन ये तो अध्यात्म है भला सत्ता की राजनीति छोड़ खुद को पाने की राह कोई जाता है । आजकल तो लोग सन्यास छोड़ राजनीति की गंगा में नहाने को तैयार बैठे हैं , कहीं आपको भी कभी मन वापस उसी दुनिया में पहुंचा दे सब छोड़ दर दर जाकर भिक्षा मांगने वाली । उधर से इधर आना संभव है इधर से उधर लौटना संभव नहीं है । आपको किसी दार्शनिक ने बतलाया नहीं क्या कि मन का खेल किसे कहते हैं चलो आपको इक कहानी सुनाते हैं ।
इक राजा को शौक था सभी उसको सबसे बड़ा दानी दानवीर कहें , उसने इक बार अपने राज्य ही नहीं बल्कि पड़ोसी राज्य के सभी संतों महात्माओं को आमंत्रित किया और बहुत धन दौलत दे कर कहा कि आपको अपने राज्य में जाकर सभी को बताना है कि इस राज्य का राजा कितना दानवीर है । पड़ोसी राज्य के इक वास्तविक साधु को समझ आई ये बात कि राजा अपना अहंकार जताना चाहता है और उसको इसका जवाब अवश्य देना चाहिए । राजा के दरबार से निकलते ही उसने राजा से मिला सभी कुछ वहां के भिखारियों में बांट कर कहा अपने राजा को बताना पड़ोसी देश का इक साधु आपका दिया सभी वितरित कर सकता है । अर्थात उस देश का साधु ऐसा है तो अन्य लोग कितने दयावान होंगे और राजा कितना दानी , मगर उसने कभी भी अपने दान देने का डंका नहीं बजाया । आखिर में इक सार्थक संवाद पढ़ते हैं : -
रहीम और गंगभाट का संवाद :-
इक
दोहा इक कवि का सवाल करता है और इक दूसरा दोहा उस सवाल का जवाब देता है ।
पहला दोहा गंगभाट नाम के कवि का जो रहीम जी जो इक नवाब थे और हर आने वाले
ज़रूरतमंद की मदद किया करते थे से उन्होंने पूछा था :-
' सीखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन
ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
अर्थात
नवाब जी ऐसा क्यों है आपने ये तरीका कहां से सीखा है कि जब जब आप किसी को
कुछ सहायता देने को हाथ ऊपर करते हैं आपकी आंखें झुकी हुई रहती हैं ।
रहीम
जी ने जवाब दिया था अपने दोहे में :-
' देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन
लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
1 टिप्पणी:
Bdhiya aalekh man ki bat ko lekar👍
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