चेहरा नहीं मुखौटा है पहचान ( अनजान लोग ) डॉ लोक सेतिया
सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखते हैं व्हाट्सएप्प पर संदेश भेजते हैं लगता है आदमी नहीं देवता हैं। सबकी भलाई की कामना सभी के लिए प्यार भरा दिल और झूठ छल कपट से दूर इंसान और इंसानियत को महत्व देने वाले हैं। धन दौलत शोहरत अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज देश और भलाई की राह चलने की भावना उनके लिए महत्वपूर्ण है। धर्म की बात तो यहां हर कोई इस सीमा तक करता दिखाई देता है जैसे संसार में रहकर मोह माया लोभ अहंकार को त्याग संत महात्मा बन कर दुनिया के कल्याण को जीवन समर्पित किया हुआ है। लेकिन सभी की अनुचित बातों पर चिंता और विरोध जतलाने वाले खुद अपने वास्तविक जीवन में कारोबार नौकरी और दोस्ती रिश्तेदारी में पहले दर्जे के खुदगर्ज़ और मतलबी बन जाते हैं। इतना ही काफी नहीं बल्कि अपने अनुचित और आपत्तिजनक आचरण को उचित ठहराने को बेझिझक कहते हैं सभी ऐसे हैं हम उनसे अलग नहीं हैं यहां जीने रहने को सब करना पड़ता है ज़रूरी है। अर्थात अपने गलत कार्य को जानते हुए भी कि गलत कर रहे हैं सही ठहराने का काम करते हैं। शायद उनको खुद अपनी पहचान तक नहीं है वर्ना कोई अपने आप से नज़र मिलाकर ऐसा कैसे कर सकता है।
गीता कुरआन बाईबल गुरुबाणी पढ़ने सुनने से मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे जाने से उपदेश सतसंग सुनकर कोई उदघोष लगाने से कोई फायदा नहीं अगर उनसे हम में कोई अंतर नहीं आता है अच्छाई बुराई को समझने को। शायद दुनिया को धार्मिक होने का दिखावा कर सकते हैं लेकिन अपने आप को कैसे झांसा दे सकते हैं ज़मीर से बचकर भाग नहीं सकते हैं। शायद इस से बढ़कर कोई हमारे विवेक को जगा नहीं सकता था कि इतनी बड़ी आपदा विश्व भर के सामने खड़ी है जब सभी को आपस में सुख दुःख बांटने और अपने स्वार्थों को दरकिनार कर विश्व कल्याण की सोच को अपनाना ज़रूरी लगता। मगर विडंबना की बात है कि ऐसे समय में भी तमाम लोग इंसानियत को भुलाकर खुदगर्ज़ी में डूबे ऐसे ऐसे कार्य करते हैं कि इंसानियत शर्मसार हो गई है। ज़िंदगी को बचाने की जगह मौत का कारोबार करने लगे हैं जो आपदा पीड़ित लोगों की विवशता को अधिक पैसा कमाने का अवसर समझ दवाओं जीवनरक्षक उपकरणों यहां तक कि एम्बुलेंस जो कोई कमाई का ज़रिया नहीं मरीज़ को बचाने को सहायता देने को होने चाहिएं मनमाने दाम लेकर अपने व्यवसाय को बदनाम कर रहे हैं।
सिर्फ कुछ लोग नहीं बाकी सभी भी अपने अपने कारोबार नौकरी में हर किसी की मज़बूरी का लाभ उठाकर घर भरने को लगे हैं। ये समय था जब सभी को अपनी खुदगर्ज़ी छोड़ वास्तविक इंसानियत का धर्म निभाने की घड़ी में इक कठिनाई का सामना करना था मिलकर आपस में। लेकिन इसी वक़्त हमने अपने संयम अपने धैर्य को खो दिया है। आधुनिक समाज कितना विकसित लगता है मगर भीतर से इस कदर खोखला है ऐसी कल्पना नहीं की होगी कभी किसी ने।
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