मई 21, 2021

व्यथा-कथा चिट्ठी की ( दास्तान- ए- ज़माना ) डॉ लोक सेतिया

   व्यथा-कथा चिट्ठी की ( दास्तान- ए- ज़माना ) डॉ लोक सेतिया 

 सदियों पुराना लंबा सफर है संदेश भिजवाने का मिलने का खुला पोस्टकार्ड मिलता था कभी बंद लिफ़ाफ़े को देख कर हाल समझ जाते थे। कितने फ़िल्मी गाने प्यारे प्यारे सुनाई देते थे चिट्ठी न कोई संदेश जाने वो कौन सा देश जहां तुम चले गए। जो दुनिया से रुख़सत हो जाते उनकी याद आती थी तब यही कहते थे उधर से कोई डाकिया चिट्ठी लेकर आता किसी तरह। अब मत पूछो संदेश भेजते हैं अपने दिल के जज़्बात बयां करते हैं हालात बतलाते हैं तो सोशल मीडिया पर कोई समझता ही नहीं। भीड़ है मगर सभी अकेले हैं जानते हैं मगर सभी अजनबी लगते हैं कभी कभी कोई पढ़ता है तो सच पढ़कर नाराज़ हो जाता है क्योंकि अजीब मौसम है व्हाट्सएप्प मेसेंजर का हर कोई अपनी कहता है और जवाब भी चाहता है जो उसको भला लगता हो वही लिख कर भेजे कोई।  ख़त दोस्ती और मुहब्बत को कायम रखते थे मगर ये नामुराद सोशल मीडिया वाले संदेश आपसी दूरी को और भी बढ़ा देते हैं चार कदम दूर बैठा भी दिल से इतना दूर हो जाता है कि सात समंदर पार की दूरी से भी अधिक फ़ासला लगता है। मुझे याद आया कॉलेज में रहते थे तब परिसर में छोटा सा डॉकघर हुआ करता था क्लॉस से हॉस्टल जाते बीच में रुकते दोपहर का भोजन करने से पहले कोई ख़त मिले यही हसरत होती थी प्यार की दोस्ती की अपनेपन की भूख पेट की भूख को भुला देती थी। कमरा नंबर बताते थे और डाकिया चिट्ठी पकड़ा देता था हज़ार युवक पढ़ते थे किसी का नाम ज़रूरी नहीं हुआ करता था। शायद ही किसी दिन मुझे निराशा होती थी जब कोई डॉक मेरे नाम की नहीं मिलती थी सभी दोस्त हैरान होते थे मुझे रोज़ कैसे चिट्ठियां मिलती हैं ये किसी ने नहीं समझा कि मैं हर दिन कितने अपनों को खत लिख कर भेजता था। उस ज़माने में कितने लोगों से कितने साल पास नहीं होकर भी रिश्तों में नज़दीकी बनाये रखी थी। वास्तव में मेरी ख़त लिखने की आदत ने ही मुझे लेखन की राह पर ला दिया है।
 
चिट्ठियां बड़ी संभाल कर रखते थे बंद बक्से में अलमारी में और कुछ बिस्तर पर सिरहाने तकिये के नीचे आधी रात को जागते फिर से पढ़ते थे। ख़त लिख दे सांवरिया के नाम बाबू कोरे कागज़ पे लिख दे सलाम बाबू। क्या ज़माना था स्याही की खुशबू की महक समाई होती थी लिखावट में जो पढ़ने वाले के भीतर समा जाती थी। बाज़ार से किताबों की दुकान से लेटर पैड और पैन चुनकर लाया करते थे। रंग बिरंगे पैड पर कलाकारी की हुई होती थी भेजने वाले की पहचान नज़र आती थी। कलम-दवात की स्याही से जेल पैन तक पहुंचते पहुंचते शब्द लिखावट साफ और गहराई बढ़ती गई मगर दिल को छूने वाले एहसास जज़्बात जाने कहां खो गए हैं। बात रूह तक नहीं पहुंच पाती आंखों से दिल में उतरती नहीं दिल से नहीं दिमाग़ से काम लेते हैं हम आजकल। शायद अब कभी कोई इतिहास की धरोहर बनकर किताब में दर्ज किसी जाने माने नायक की लिखी चिट्ठियों को लोग याद ही नहीं करते। अमृता प्रीतम की जीवनी रसीदी टिकट जैसा अनुभव मिलता नहीं इधर शोहरत वाले अपनी आत्मकथा लिखते लिखवाते हैं मगर ज़िंदगी की वास्तविकता से कोसों दूर बनावट की बातें। अब  राजनेता की रेडियो पर कही तथाकथित मन की बात में मन की कोई बात होती ही नहीं अनबन की बात लगती है। 
 
फोन क्या आया सब बदलता गया और बदलते बदलते इतना बदला जो लोग खुद ही बदल गए। कभी फोन पर सभी से आपसी हाल चाल की बातें हुआ करती थीं। धीरे धीरे फोन का महत्व कम होता गया और औपचारिकता की बातें होने लगी। अब बस कुछ करीबी लोगों को छोड़ किसी का फोन आता है तो इक चिंता होती है क्यों आया है फिर भी सब ठीक हो तो सोचने लगते हैं कोई मतलब कोई ज़रूरत कुछ काम होगा और पूछने से बचते हैं बल्कि सोचने लगते हैं कोई बहाना बनाकर पीछा छुड़ाने को लेकर। रिश्तों की मधुरता जाने कब ख़त्म हो गई जब लोग स्वार्थी और खुदगर्ज़ बनते बनते आदमी से बेजान पत्थर बन गए हैं। अभी बीस साल पहले अख़बार पत्रिका में पाठकों की बात बड़ी महत्वपूर्ण समझी जाती थी संपादक पाठक को भगवान की तरह आदर देते थे आलोचना करने पर भी आभार जताया जाता था। विज्ञापन और पैसा टीआरपी जब से पाठक से बड़े लगने लगे टीवी अख़बार पत्रिका को प्रशंसा के पत्र ईमेल ही अच्छे लगने लगे हैं। डॉक से मिले खत रचनाएं धूल चाटती पड़ी होती हैं कहीं। वास्तव में ईमेल कभी चिट्ठियों की जगह नहीं ले सकते हैं। कारोबारी  बात सामान बेचने खरीदने या सरकारी सामाजिक संगठनों संस्थाओं की सूचनाओं का आदान प्रदान जानकारी टीवी अख़बार के खबर आदि से लेकर अपने आर्थिक उद्देश्य की ज़रूरत भर बन गए हैं पल भर बाद कूड़ेदान में मिलते हैं। 
 
यूं तो खतो -किताबत पर बहुत लिखा लिखने वालों ने। नसीम अंसारी कहते हैं " मैं रौशनी पे ज़िंदगी का नाम लिख के आ गया , उसे मिटा मिटा के ये सियाह रात थक गई।" लेकिन मैंने जब से चिट्ठी की जगह सभी को संदेश भेजने शुरू किये व्हाट्सएप्प के मायाजाल में उलझकर बड़े हैरतअंगेज़ अनुभव हुए हैं लोग सच से घबराकर बिना पढ़े समझे मुझे समझाने लगते थे व्यर्थ समय बर्बाद करते हैं किसी को सच्चाई से कोई मतलब नहीं रहा। लेकिन हद की भी हद नहीं होती जब लोग पढ़कर जवाब देने की जगह सवाल उठाते हैं लिखने का हासिल क्या है पूछते हैं। ऐसे में दुष्यन्त कुमार का शेर याद आना ज़रूरी है। कहते हैं दुष्यन्त कुमार " हमने सोचा था जवाब आएगा , एक बेहूदा सवाल आया है।"






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