पागलपन से मानसिक दिवालियापन तक ( अंधेर नगरी चौपट राजा )
डॉ लोक सेतिया
हम जिसको आधुनिक समाज का भविष्य कहते हैं वास्तव में समझदारी क्या नासमझी से भी अधिक इक पागलपन है जो विकास के नाम पर मानसिक दिवालियेपन तक पहुंच गया है। और ये बात किसी एक जगह नहीं सभी जगह दिखाई देती हैं लेकिन हम देखना चाहते नहीं हैं। जिसको जो चाहिए उसको अपनी ज़रूरत से बढ़कर कुछ नहीं लगता और उसकी ख़्वाहिश से बाकी लोगों देश समाज का कितना नुकसान हो सकता है ये कोई नहीं सोचता है। जैसे अभी इंटरनेट के 5 जी की बात हो रही है और जिनको हर चीज़ जल्दी और सबसे आसान चाहिए उनका तर्क है जिनको टॉवर से निकलती तरंगों से खतरा लगता है उन्हीं को साबित करना होगा कि ऐसा कैसे होगा। अर्थात आपको ज़हर बेचने वाला पहले ज़हर पीने की शर्त रखता है बाद में अगर ज़हर पीकर आपको कुछ हुआ तब वो क्षमा मांग कर हिसाब चुका देगा। अभी तक विकास ने यही दिया है हमने कुदरत से खिलवाड़ कर धरती पानी हवा पेड़ पक्षी सभी का हाल खराब कर दिया है। बंद कमरों में बैठ ज़मीनी हक़ीक़त से अनजान लोग खुद को समझदार मानकर अतार्किक निर्णय करते रहते हैं जिनसे इंसान और दुनिया को क्या हासिल होगा किस कीमत पर ये सवाल कोई नहीं करता है। इक दौड़ में शामिल हैं सभी कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है और शासक लोग हाथी घोड़ों पर आम आदमी को नीचे कुचल कर आगे बढ़ते थे आजकल आधुनिक हवाई जहाज़ और मानवता को विनाश की तरफ धकेलती जंग की नीति अपनाकर हथियार और विनाशकारी बंब बनाने से लेकर चांद मंगल पर जाने की बात करते हैं।
आज़ादी के बाद राजनेताओं ने सत्ता पाकर जनकल्याण गरीबी भूख शिक्षा स्वास्थ्य और यहां तक कि सही मायने में आज़ाद होने का अर्थ निडरता से समान अधिकार पाकर जीना की ज़रूरी बात को दरकिनार कर शासकों की महत्वांकाक्षा उनकी मनमानी उनके विशेषाधिकार पर ध्यान दिया है। जिनको कलाकार कलमकार साहित्यकार कथाकार और आधुनिक संदर्भ में टीवी अख़बार सोशल मीडिया को सही मार्गदर्शन करना था खुद भटक गए अपने अपने स्वार्थ में अंधे होकर। ये कैसी आज़ादी कैसा विकास कैसा लोकराज है जिस में मुट्ठी भर राजनेता अधिकारी शासकीय कर्मचारी और उद्योगपति कारोबारी फलते फूलते रहे और सत्तर फीसदी जनता भूखी नंगी बेबस है। लेकिन सरकार अधिकारी नेता राजनैतिक दल बदलने से व्यवस्था बदली नहीं बल्कि हालात खराब से भयावह होते गए हैं। सत्ता में जिनको पागल कर दिया है उनको अपना अपराध मानवता के ख़िलाफ़ आचरण अनुचित कभी नहीं लगता है। जनता और नागरिक से कानून पालन की उम्मीद करने वाले खुद अपनी मर्ज़ी से कायदे कानून को बदलते ही नहीं बल्कि देश के संविधान की भावना की धज्जियां उड़ाते हैं निरंकुश होकर जनहित विरोधी व्यवस्था स्थापित करते हैं।
सवाल उठता है कि क्या वास्तव में हम देशवासी आमजन खामोश रहने को विवश हैं या फिर हम सिर्फ अपने पुराने इतिहास की वीरों की गाथाओं पर गर्व करते हैं मगर खुद कायरता का जीता जागता उद्धाहरण बन गए हैं जो मतलब के बगैर समाज देश की खातिर सामने खड़ा होने को तत्पर नहीं है। तालियां बजाने लोग तमाशाई होते हैं खेल के खिलाड़ी नहीं और जिनको कुछ करना होता है वो लोग जीत हार की नहीं सही और गलत की चिंता करते हैं। सौ साल तक आज़ादी की जंग लड़ने वालों को अंजाम की चिंता कभी नहीं थी उनको जीना नहीं था गुलामी की कैद में और गुलामी की जंज़ीरों से भारतमाता को मुक्त करवाने को हंसते हंसते सूली पर चढ़ गए थे। क्या हम उनके बलिदान और उनकी अपेक्षाओं का निरादर नहीं करते जब हम चाटुकारिता और व्यक्ति दल के लिए अपनी निष्ठा रखते देश और समाज को पीछे छोड़ देते हैं।
आखिर इस दर्द की दवा क्या है - समस्या को समझने के बाद निदान की बात।
एक एक कर सभी की बात करते हैं और ये जो भी करना था मगर नहीं किया और जो नहीं करना चाहिए था वो करते रहे उस को ठीक कैसे कर सकते हैं उन पर अंकुश कैसे लगा सकते हैं। पहले सरकार नेताओं शासन चलाने वाले अधिकारी वर्ग की बात करते हैं। राजनेता चुनाव लड़ते समय वादे करते हैं आपकी समस्याओं का समाधान करने के मगर जब चुने गए तब अपनी कही बातों पर खरे साबित नहीं होने पर उन पर कोई दंडात्मक करवाई कोई नहीं कर सकता जबकि संविधान की ईमानदारी की शपथ लेते हैं जनता देश की सेवा करने की निभाते नहीं क्या लोकतंत्र में ये सबसे बड़ा अपराध नहीं है। चुनाव आयोग न्यायपालिका पुलिस अन्य संस्थाएं उन पर नियुक्त लोग भी वास्तविक कर्तव्य को निभाना छोड़ केवल औपचारिकताएं निभाते हैं। जब जिस किसी को किसी भी काम पर रखना होता है तब कार्य नहीं करने पर मिला वेतन सुविधाएं छीन कर उन को जुर्माना लगाने गलत किया उसका खमियाज़ा कोई नहीं भरे इसलिए उन पर हर्ज़ाना भरने का नियम होता है। जब तक नेताओं अधिकारियों पुलिस सुरक्षा दलों पर उनकी नाकामी लापरवाही पर सज़ा देने का कानून सख़्ती से लागू नहीं किया जाता ये लोग जनसेवा देशसेवा के नाम पर मनमानी करते गुलछर्रे उड़ाते रहेंगे।
कोई आपको योग से निरोग बनाने का उपाय बताकर खूब मालामाल होता है मगर आपको क्या वास्तव में जो दावा था हासिल हुआ और अगर नहीं तो उसकी ठगी कब तक होने दी जा सकती है। ये साबित करना उनका कर्तव्य है कि उनकी बात झूठ नहीं है जबकि ये सभी चालाकी नहीं चतुराई से जालसाज़ी करते हैं आपको इश्तिहार में 90 से 99 फीसदी का झांसा देकर। फायदा किसी को नहीं होता क्योंकि उनका एक फीसदी आंकड़ा बचाव की खातिर है। कोई आपको कीटनाशक मिली शहद कोई सब्ज़ी कोई खाद्य पदार्थ बेचता है पैसे की खातिर आपकी जान स्वास्थ्य से खिलवाड़ करता है। सरकार कानून सभी जानते हुए आंखें बंद रखते हैं कारोबार का मतलब चार गुणा मूल्य पर बेचना नहीं होता है एक के साथ एक मुफ्त भी जुर्म होना चाहिए आपको लागत पर उचित ही नहीं तर्कसंगत मुनाफा अपनी आजीविका चलाने को लेने की अनुमति होनी चाहिए अन्यथा आप सौदागर नहीं लुटेरे हैं। कितनी एजेंसी आपको बीमा पॉलिसी खरीदने को लुभाती हैं मगर जब किसी को भुगतान करना पड़ता है तब ये ईमानदारी से अनुबंध नहीं निभाते हैं। टीवी चैनल अख़बार फिल्म वाले अगर रास्ता दिखलाना छोड़ पैसा बनाने को मार्ग से भटकाने का काम करते हैं तो ये भी साधुवेश में ठगना ही है। कहने का अभिप्राय इतना है कि जिसको जो करना चाहिए उसका वो नहीं करना गुनाह है और हर गुनहगार को सज़ा मिलनी चाहिए बल्कि जिनको अपराध नहीं होने देने थे उनका जुर्म और कड़ी सज़ा का हकदार है।
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