कह दो नहीं मंज़ूर मूर्ख बनना ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
सच बताना कोई बेसिर-पैर की बातें करता हो क्या आप ख़ामोशी से सुनकर जी हां कह सकते हैं और अगर करते हैं तो बेकार की झूठी बातें करने वाला सोचता होगा पहले दर्जे के नासमझ लोग हैं इतना भी नहीं सोचते ये सब मुमकिन ही नहीं है। चलो उन सभी से मुलाकात करते हैं जो हर दिन हमको उल्लू बनाते हैं। आपका समय नहीं कटता घर बैठे हैं टीवी पर मनोरंजन के नाम पर सीरियल कॉमेडी शो देखते हैं। आपको खीज नहीं होती इतनी अतार्किक कहानियां परोसते हैं टीवी सीरियल वाले। सब को समझ आता है ये खलनायक है घर में रहकर तमाम हथकंडे अपनाता है किसी को बंधक किसी को अपने जाल में फंसवाता है और नायक और समझदार सामने घटती घटनाओं से अनजान रहते हैं। और हर टीवी सीरियल की कहानी में वही बार बार दोहराया जाता है। वास्तव में इन कथाकार कलाकार सृजन कार्य करने वालों के पास कोई नवीन सार्थक विषय समाज को दिखलाने जागरूक करने को नहीं है सभी इक कुंवे के मेंढक खुद को दुनिया का मालिक समझते हैं। उनको रहने दो उनकी छोटी सी कुंवे की दुनिया है आप क्यों खुद को कुंवे के मेंढक बनने दे रहे हैं। छोड़ दो इस दुनिया को बाहर निकलो और देखो समझो अपनी आंखों से वास्तविक दुनिया का सच जो बिल्कुल अलग है। टीवी वालों की खबरें खबरें कम किसी को बदनाम किसी का गुणगान अधिक है और खबर किसे कहते ये खुद उसकी परिभाषा भूल गए है। " खबर वो सूचना है जो कोई जनता तक पहुंचने नहीं देता पत्रकार का फ़र्ज़ है उसे तलाश करना और उजागर करना। " लेकिन ये कोई छिपी बात नहीं तलाश करते ये जो कोई खुद बताता है उसी को दोहराते हैं बस शोर मचाते हैं। चोर चोर चिल्लाते हैं चोरों से दोस्ती निभाते हैं। हम क्यों इनके बहकावे में आते हैं।
चलो राजनीति का नंगा नाच दिखलाते हैं चुनाव लड़ने को खुलेआम जनता को भड़काते हैं अपने अपने विरोधी को अपराधी गुंडा कहते हैं मगर चुनाव बाद आपको रहने नहीं देंगें की धमकियां देकर खुद क्या हैं बतलाते हैं। नेता भरी सभाओं में गाली धमकी और डराते धमकाते हैं चुनाव आयोग संविधान के रखवाले खड़े दुम हिलाते हैं न्यायव्यवस्था वाले आंखों पर पट्टी कान पर हाथ धरे मुंह बंद रखकर बापूजी के बंदर बन जाते हैं। लेकिन ऐसी असभ्य और नफरत की आग लगाने वाले नेताओं की सभाओं में हम किसलिए जाते हैं इतना ही नहीं जिन घटिया बातों पर जूते फेंकने होते हैं हम तालियां बजाते हैं। यही जिनको हम अपना सेवक चुनते हैं हम पर शासक बनकर हुक्म भी चलाते हैं और हर बार हम पांच साल तक हाथ मलते हैं पछताते हैं। हमने कैसे कैसे शहंशाहों के ताज उछाले हैं कितने तख़्त गिराए हैं भूल क्यों जाते हैं। हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म याद नहीं करते बल्कि जो ये नहीं चाहते उनकी चालों में फंसते जाते हैं। आवाम की आवाज़ को धर्म से जोड़कर ये नेता हमको उल्टा सबक पढ़ाते हैं। लोकराज में तानाशाह बनकर इतराते हैं देश को बेचते जाते हैं बंटाधार करते हैं समाज का और उसको विकास कहकर सभी को मूर्ख बनाते जाते हैं।
चलिए उनकी तरफ भी नज़र दौड़ाते हैं जो आपको धर्म की भगवान की अल्लाह की जीसस की गुरुनानक की कथा बताते हैं। अपनी सहूलीयत से कथा कहानी बनाते हैं आपको चमत्कार और अंधविश्वास की अंधी गली में लिए जाते हैं बाहर निकलने रौशनी पाने का कोई मार्ग नहीं रहने देते कूप-मंडूक बनाकर आपको भूखा रखते हैं खुद हलवा पूरी खाते हैं। ईश्वर से नहीं मिलवाते आपको धर्म के नाम पर गुमराह करते रोज़ मौज मनाते हैं। मानवता और दीन दुःखी लोगों की पीड़ा को नहीं समझते असली धर्म भूलकर आडंबर करते जाल बिछाते हैं। हम उपदेश सुनते हैं समझते नहीं हैं जो लोभ मोह से बचने को कहते हैं खुद धर्म के नाम पर कितना बढ़ाते जाते हैं इंसानियत की खातिर कभी नहीं मंदिर मस्जिद वाले खुद धर्म निभाने सामने आते हैं। भूखे नंगे लोगों को भजन सुनाते हैं भूखे भजन ना होय गोपाला साधु समझाते हैं। मतलब इसका इक कहावत से समझते हैं कोई अपने गधे पर बैठ कर सफर कर रहा था मगर अपने सर पर गठड़ी का बोझ उठाये हुए था किसी ने पूछा ये गठड़ी अपने सर से उतारकर गधे पर अपने आगे रख दो किसलिए सर पर रखे हुए हो। वो बोला मुझे खुद अपना बोझ उठाना है गधा मेरा बोझ उठाये है काफी है नासमझ को कौन समझाए सारा बोझ फिर भी गधा चुपचाप ढो रहा है। हम सभी भी अपने गधों का बोझ खुद अपने सरों पर ढोने का काम कर रहे हैं। बल्कि सच तो ये है जिनको हमारा बोझ उठाना था वही गधे हम पर बोझ बन गये हैं।
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