किस्मत मेहरबान तो गधा पहलवान ( आठवां सुर ) डॉ लोक सेतिया
मुकद्दर ने किसी को तख़्तो-ताज़ बख़्श दिया कितने बंदर कलंदर बन बैठे सिकंदर सभी हैरान हैं गधे बड़े पहलवान हैं। जो नहीं जानते कुछ भी अनजान हैं मगर अब ऊंची जिनकी दुकान है फीके बेशक उनके पकवान हैं वही लोग लगते देश की शान हैं। यही नसीब की बात है उनकी सुबह है आपकी रात है सूखा मचाती ये बरसात है फालतू की उनकी नई बकवास है सभी कह रहे वाह वाह क्या बात है। समझ आएगी साफ साफ बताते हैं ये सब जो उल्लू बनाते हैं खूब खाते कमाते हैं झूठ फरेब छल कपट की सीढ़ी चढ़ते जाते हैं आपको हर बात समझाते हैं उनके शीशे के घर हैं मगर फिर भी सभी पर पत्थर चलाते हैं। आपको फ़िल्मी डायलॉग की तरह बोलकर ऊंची आवाज़ में सबसे बड़ा झूठ यही सच समझना आपको कहते हैं और आप मान भी जाते हैं। आओ आपको दो ऐसे लोगों से मिलवाते हैं जिनको समझ कर भी लोग समझ नहीं पाते हैं।
कोई राजनेता है कोई अभिनेता है उसने किसी का कोई भला नहीं किया है सब खुद लिया है कुछ भी नहीं दिया है सब मानते हैं ये सबसे ख़राब है मगर जादू उसका चल रहा है भिखारी सभी हैं इक वही नवाब है। जिसने किया सबका ख़ानाख़राब है वही मांगता सबसे हिसाब किताब है ये खोटा सिक्का चल रहा है देश में ठग ऑफ हिन्दुस्तान हैं दाता के भेस में। नहीं कुछ भी उसने कभी भी पढ़ा है अनपढ़ है नासमझ है और नकचढ़ा है बिठाया था आंखों पर लो सर पर खड़ा है कहता है दुनिया में सबसे बड़ा है। खोटा सिक्का चलता है बस समझो खरा है। इक और से मिलवाना हैं ये सच है झूठा अफ़साना है उसने सबको योग से भोग तक महारोग से राजयोग तक जो नहीं सीखा समझाना है खुद पढ़ा नहीं आपको पढ़वाना है उसका खाना खज़ाना है कहता है सब कुछ लुटवाना है मगर हाथ किसी के कुछ नहीं आना है उसका हर जगह ठिकाना है। सभी जानते हैं इन दोनों को ये झूठे हैं धोखेबाज़ हैं सब जानते हैं मगर फिर भी सब जाल में उन्हीं के फंसे हैं खुश हैं ये जैसे भी हैं हमारे लिए बढ़िया हैं सोचते हैं। संक्षेप में इक नज़्म पुरानी दोहरा रहे हैं ये देश को सपनों से बहला रहे हैं जो इनकी पोटली में रखा नहीं है दिखला रहे बेचते हैं करोड़ों कमाकर दिखला रहे हैं। राजा नंगा कहानी को बदलकर उल्टी गंगा बहा रहे हैं। अंधे रास्ता दिखा रहे हैं गूंगे मधुर गीत सुना रहे हैं सभी बहरे ताली बजा रहे हैं।
किसी ने जन्नत का ख़्वाब बेचा किसी ने सब का बनाकर नकाब बेचा उसने अपना चेहरा दुनिया भर को आईना कहकर जनाब बेचा। समंदर है दावा किया था जनता को सूखा तलाब बेचा क्या क्या खरीदा क्या क्या बनाया सवाब मिलता है बतलाकर अज़ाब बेचा। जाने किस शायर की लिखी ये नज़्म है क्या सोचकर लिखी मगर इक बाबा इक राजनेता ने उसको सच कर दिखाया है। काठ की तलवार बनाकर जंग लड़ता है जीत का परचम फहराया है। नज़्म पेश है वीडियो से पहले लिख देता हूं आभार सहित जिसकी रचना है गुमनाम अनाम का धन्यवाद। रावी से तीन नहरें निकलीं दो सूखी और इक कभी बही ही नहीं। जो बहती नहीं उस में तीन लोग नहाने को आये दो डूब गए इक मिलता ही नहीं। जो मिलता नहीं उसको तीन गांय मिलीं दो बच्चे देने के काबिल नहीं एक गर्भवती होना नहीं जानती जो गर्भवती नहीं उसने तीन बछड़ों को जन्म दिया। दो अपाहिज एक उठ भी नहीं सकता। जो उठता तक नहीं उसका मूल्य तीन रूपये दो खोटे और एक जो चलता ही नहीं जैसे पुराने हज़ार पांच सौ वाले नोट रद्दी की तरह आजकल। उस चलन से बाहर नहीं चलते रूपये की कीमत आंकने तीन सुनियार पारखी आये जिन में दो अंधे हैं और एक को कुछ भी दिखाई नहीं देता है। उस को तीन मुक्के मारे गए जिन में दो चूक गए और एक लगा ही नहीं। अध्याय का अंत वीडियो अभी पेश है।
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