मई 03, 2021

जनता का आह भरना जुर्म शासकों की लापरवाही उनकी मर्ज़ी ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

   जनता का आह भरना जुर्म शासकों की लापरवाही उनकी मर्ज़ी 

            ( आलेख - कड़वी सच्चाई तथ्य सहित ) डॉ लोक सेतिया 

    ये संवेनहीनता की हद है सरकार नेता पुलिस सभी जनता को दोषी समझते हैं उनके आदेशों और निर्देशों का पालन नहीं करते कोरोना को हराने बढ़ने से रोकने और बचाव के तरीकों पर गौर नहीं करते हैं। ये समय आरोप लगाने का नहीं है मगर जब सत्ताधारी अपनी नाकामी और वास्तविक कर्तव्य नहीं निभाने की वास्तविकता को स्वीकार करने की जगह जो मर रहे हैं उनकी गलतियां बताने लगे तो जले पर नमक छिड़कने का काम लगता है। सोलह महीने में कोरोना को लेकर देश और राज्यों का स्वास्थ्य विभाग कितना कुछ कर सकता था ये सवाल भी छोटा है आपको असली कारण समझने को और पीछे जाकर देखना समझना होगा। सोलह साल पहले जो शुरआत की जा सकती थी सरकारें नेता बदलते रहे बदलाव करना किसी को ज़रूरी नहीं लगा। शिक्षा और स्वास्थ्य को बजट नाम को निर्धारित किया जाता रहा आबादी को देखते हुए इक नागरिक पर एक दो से बढ़कर अधिकांश पांच रूपये जो इमारत कर्मचारी वेतन के बाद वास्तव में दवा अदि के लिए कुछ भी नहीं बचता। मगर विकास के नाम पर बुत बनाने से आडंबर करने पर बेतहाशा धन बर्बाद किया जाता है हर दिन। मानव जीवन की सुरक्षा से बढ़कर चांद और मंगल पर जाने को अधिक ज़रूरी समझते रहे।
 
मनमोहन सिंह की सरकार में डॉ अंबुमनी रामदासा स्वस्थ्य मंत्री बने थे मई 2004 में तब उन्होंने देश की स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्दशा को सुधारने को सख्त नियम कानून बनाने को बिल संसद में पेश किया था। अस्पताल क्लिनिक सरकारी या निजी सभी को मापदंड अनुसार न केवल पंजीकरण करने बल्कि उपचार को लेकर शुल्क की सीमा तक निर्धारित करने तथा ईलाज और अस्पताल में दाखिल करने को मरीज़ की हालत को सामने रखना न कि पैसे या सिफारिश को महत्व देने का नियम की बात थी और निर्धारित कानून और नियम का अनुपालन नहीं करने पर अस्पताल पर कठोर करवाई की बात भी शामिल थी। लेकिन उस कानून को संसद की कमेटी को भेजकर ठंडे बस्ते में डालकर भुला दिया गया राजनितिक कारणों से और जो डॉक्टर देश की स्वास्थ्य सेवाओं को सही करना चाहता था उसको पद से हटवा दिया गया। नागरिक स्वास्थ्य से अधिक महत्व आर्थिक कारणों को दिया गया क्योंकि देश में अधिकांश नर्सिग होम अस्पताल निजी क्या सरकारी खरे साबित नहीं होते थे। मतलब ये कि उनको मनमानी करने और मरीज़ों की ज़िंदगी की कोई कीमत नहीं समझने की की गई और भविष्य में जो जैसा चल रहा था जारी रहने दिया गया। हमारे देश के शासक नेताओं अफसरों को नागरिक की स्वास्थ्य सेवा पाने की उम्मीद को कभी समझना ज़रूरी नहीं माना क्योंकि उनको जब ज़रूरत हो बड़े अस्पताल और विदेश जाकर ईलाज की सुविधा हासिल होती है।
 
पिछले कुछ सालों से जनता की समस्याओं को खिलौना समझने की बात की जाती रही है। आपको हर बात के लिए ऐप्प्स बना कर समझाया गया चुटकी बजाते समाधान मिलेगा। मगर वास्तव में तमाम ऐप्प्स नाकारा और बेकार साबित हुई क्योंकि अफसरशाही बाबूशाही और सरकारी कर्मचारी दर्ज शिकायत को जब मर्ज़ी हटा देते बिना समाधान किये अपने आंकड़े सही करने को। झूठ और फरेब का मायाजाल रचा गया वास्तविक हल नहीं किया गया। अधिकारी नेता मनमर्ज़ी से अपनी सुविधा के नियम बनाते बदलते रहे। पुलिस नेता अपराध को बढ़ाते रहे और कानून व्यवस्था का बंटाधार करते रहे। अपराधी को पकड़ना सज़ा देना छोड़ अपराध करवाना उनका कारोबार बन गया। जनता पर लाठी भांजने वाले खुद मुजरिमों के साथी बनकर आगे बढ़ते बढ़ते वहां तक पहुंच गए कि संसद विधानसभा में बहुमत बाहुबली और गंभीर अपराध करने के आरोपी का होने लगा। वोटों की खातिर बलात्कार के आरोपी को बचाते उसके गैरकानूनी काम को वैध करते रहे। 
 
अब तो चुनाव जीतना ध्येय बन गया और सत्ता पाना और शासक बनकर जनविरोधी विचारधारा जनमत विरोधी कार्य और कानून बनाना आदत बनता गया। देश समाज के कल्याण को छोड़ अपनी विचारधारा थोपने को हथकंडे अपनाकर संविधान तक की अनदेखी की जाती रही। विरोध की आवाज़ को दबाने कुचलने से टीवी अख़बार मीडिया को खरीदने का तानाशाही ढंग अपनाया जाता रहा। भूल गए देश की करोड़ों की आबादी को रोटी शिक्षा स्वास्थ्य चाहिए मंदिर मस्जिद धर्म के नाम पर बांटना अनुचित है। कितनी बड़ी अर्थव्यवस्था की बात कहां रह गई जब सपनों की कांच की बुनियाद पर खड़ी ऊंची इमारत विकास की चरमरा कर ढह गई। कोरोना की आपदा कड़वा सच कह गई। झूठ की नगरी में सच का कत्ल होता रहा शासक मुस्कुराता रहा आमजन रोता रहा। क्या होना चाहिए था और क्या होता रहा। हालत ये है कि ऑक्सीजन नहीं मिलने से अस्पताल में बिस्तर नहीं मिलने से लोग बेमौत मर रहे हैं। आह भरते हैं तो सरकार जनाब को लगता है गुनाह कर रहे हैं। लाशों पर राजनीती की बात सच होती लगती है सावन के अंधों को मगर हरियाली नज़र आती है। 
 
आखिर में भयानक तस्वीर आपको दिखाते हैं कभी गूगल पर सर्च करना तो किसी अख़बार में आपको डॉ अंबुमणी रामदासा का संसद में पेश किया स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने वाले बिल का मसौदा मिल जाएगा। पढ़कर दंग रह जाओगे कि इतने साल पहले किसी ने इतनी गहनता से विमर्श कर स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने की कोशिश की थी जो नाकाम नहीं कर दी गई होती तो आज जो बेबसी और दर्द खुद डॉक्टर्स और नगरिक महसूस कर रहे हैं कदापि नहीं होती। जिन को हम चुनते हैं देशभक्ति की समाज सेवा की बातें सुनकर वो सांसद विधायक बनते केवल अपने खुद के लिए सब हासिल करने वाले कानून पल भर में पारित कर लेते हैं जबकि जनता की भलाई की खातिर कोई पहल करता भी है तो उसको सही अंजाम तक नहीं पहुंचने देते हैं। बीस तीस साल पहले बनाये अच्छे कानून राज्य सरकारें लागू नहीं करती मगर अपने ख़ास लोगों की ज़रूरत को उनकी गलत मांग को भी अध्यादेश लेकर तुरंत पूरा किया जाता है। हम खुद को देशभक्त कहते हैं मगर देश समाज विरोधी आचरण करने वाले लोगों के सामने सर झुकाये खड़े रहते हैं। स्वार्थी खुदगर्ज़ सत्ता का अनुचित उपयोग करने वालों की बातें सुनकर तालियां बजाते हैं। अपने देश को बर्बाद करता देख हमारा खून खौलता नहीं हैं जैसे हमारी धमनियों में खून नहीं पानी बहता है। अनुचित को अनदेखा करना विरोध नहीं करना कायरता है फिर कैसे हम अपने गैरवशाली इतिहास की बात करते हुए सीना चौड़ा करते हैं। जिन्होंने देश को आज़ाद करवाया गुलामी की जंज़ीरें तोड़कर उनके सामने हम शर्मसार नहीं होते जब उनकी महिमा का गुणगान करते हैं और उनके सपनों को तार तार करने वालों को मसीहा कहते हैं। 
 
आपको लग सकता है कि कुछ ऐसे कानून बन जाने से क्या वास्तव में बदलाव हो सकता है , तो आपको बताना चाहता हूं कि स्वस्थ्य शिक्षा को मुनाफे का कारोबार नहीं बनाने दिया जाता और स्कूल अस्पताल को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं सभी को उपलब्ध करवाने का लक्ष्य दिया जाता और ऐसा नहीं करने वालों को ये पेशा करने की अनुमति नहीं मिलती तब क्या हो सकता था। तब फार्म हॉउस बड़ी बड़ी गाड़ियां खरीदने और रहने को ऊंचे भवन बनाने की जगह चिकिस्तक अपने अस्पताल में नर्सिंग होम या सरकारी नागरिक अस्पताल में अपनी सुविधाओं से पहले रोगी का उपचार और निदान करने को ज़रूरी साधन उपलब्ध करवाने पर ध्यान देते। भगवान के बाद जिनको महान समझा जाता है उनको खुद कुछ पाने की चाहत नहीं त्याग की भावना महत्वपूर्ण लगती। 

 

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