तेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
चमकते चांद को टूटा हुआ तारा बना डाला , तेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला। ग़ुलाम अली की आवारगी ग़ज़ल आपने सुनी होगी इस दश्त में इक शहर था वो क्या हुआ आवारगी। ये दिल ये पागल दिल मेरा क्यों बुझ गया आवारगी। मगर आवारगी शीर्षक से इक और ग़ज़ल है जो सुनकर मौजूदा हालात की सच्ची बात लगती है। परस्तिश की आदत बड़ी खराब होती है किसी भी बुत को खुदा समझने लगते हैं आशिक़ जिस पर फ़िदा होते हैं उसके हुस्न की दीवानगी में उसी पर मरते ही नहीं क़ातिल को दुआ भी देते हैं। जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल पढ़ते हैं पहले फिर बात को आगे बढ़ाते हैं।
जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए।
दिल का वो हाल हुआ है ग़में दौरां के तले
जैसे इक लाश चटानों में दबा दी जाए।
हमने इंसानों के दुःख-दर्द का हल ढूंढ लिया
क्या बुरा है जो ये अफ़वाह उड़ा दी जाए।
हम को गुज़री हुई सदियां तो न पहचानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाए।
हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए।
कम नहीं नशे में जाड़ों की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाए।
आवारगी कहते हैं कहीं टिक कर नहीं रहने की आदत को वक़्त भी कहीं ठहरता नहीं है बदलता रहता है। नानी की कहानी की तरह किसी भटकने वाले को हमने महल तख्तो-ताज देकर भिखारी से शहंशाह बना डाला और उसने खूब जमकर अपनी हसरतों को पूरा करने में खज़ाना लुटा डाला। लोग उसकी दिलकश अदाओं पर ऐसे लट्टू हुए कि उसके सितम भी करम इनायात लगने लगे। बस यही देखा तो जाँनिसार जी की ग़ज़ल याद आई। हम खुद देखते सुनते हुए नादान बने रहते हैं मगर कोई विदेशी हमको समझाता है तब पता चलता है हम क्या हैं। हमारे टीवी अख़बार हमें वास्तविकता से परिचित करवाने के बदले उलझाने का काम करते हैं ऐसे में विश्व प्रसिद्ध जॉर्नल लांसेट लिखता है भारत में दस लाख लोग मर सकते हैं कुछ महीनों में जिसका दोष मौजूदा मोदी सरकार ही है। किसी शायर ने कहा था " वो अगर ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता , तो यूं किया कि मुझे वक़्त पर दवाएं नहीं दीं "। मोदी सरकार ने ही नहीं देश में सभी राज्यों की सरकारों ने भी यही किया है कोरोना ही नहीं तमाम अन्य समस्याओं पर जो कदम उठाने ज़रूरी थे नहीं उठाकर शोर मचाने दलगत राजनीती करने और सत्ता को अपनी बपौती बनाने में लगे रहे। नेता जीतते रहे जनता हारती रही मरती रही और कोई मुजरिम नहीं ठहराया गया कभी भी।
लोग सिर्फ कोरोना से बिना ईलाज नहीं मरे हैं लोग सरकार की बिना सोची विचारी गलत नीतियों को लागू करने से भी बेमौत मरते रहे हैं। चुनाव और सत्ता का घिनौना खेल इंसान को इस कदर वहशी बना देता है कि शासक गरीबी भूख बदहाली को मिटाने नहीं ढकने लगता है। दुनिया को देशवासियों को झूठी तस्वीर दिखाई देती है जबकि सत्ताधारी अपने ऐशो-आराम सुख सुविधा नहीं रईसाना शौक पर खज़ाना लुटाते हैं। संवैधानिक संस्थाओं सर्वोच्च न्यायलय आरबीआई सीबीआई सभी कठपुतली बनकर रह गए हैं सीएजी तक गूंगी अंधी बहरी बन गई है। शोर किसी और बात का सुनाई देता है जबकि ख़ामोशी में चीखें दबी पड़ी हैं। हम लोग अभी भी न्याय समानता के अधिकार की बात छोड़कर बहकावे में आकर उनकी जयजयकार करते हैं जो देश की बुनियादी समस्याओं को हल करना नहीं चाहते और धर्म जाति मंदिर मस्जिद में उलझाकर जनता को पागलपन की तरफ धकेलते रहते हैं। और हमने इसको अपनी नियति मान लिया है जो शासकों की नाकामी और लापरवाही बल्कि जानकर कुछ नहीं करने की आपराधिक कार्यशैली से होता है हो रहा है।
इधर लोग ऐसी ऐसी कहानियों पर फिल्म बनाते हैं जो अच्छे अच्छे पढ़े लिखे लोगों की अकल पर खुदगर्ज़ी का पर्दा पड़ जाने से झूठ को सच समझने लगते हैं। गुडलक ऐसी फिल्म है कोई किसी को तीन महीने गुडलक की ऑफर बेचता है मुफ्त में और शर्त ये कि अगर काम आया तो आपको हमेशा को गुडलुक पास रखने को अनुबंध करना होगा कीमत चुकानी होगी। तीन महीने बाद कीमत बताई जाती है आपको किसी का क़त्ल करना होगा अन्यथा आपका मिला गुडलुक चला जाएगा। बस किसी ने गुडलुक को बेचा अच्छे दिन नाम देकर किसी ने योग आयुर्वेद का लेबल लगाकर किसी ने करोड़पति बनने का सपना कहकर। और उसके बाद लोग उनकी बेची चीज़ खरीद बदले में मौत के कुंवे का तमाशा देख तालियां बजा रहे हैं। पहले ज्योतिष वाले झांसा देकर किस्मत बदलने को केवल पैसा लूटते थे अन्धविश्वास बढ़कर अपना सिक्का चलाते मालामाल होते थे। अब तीन लोग नहीं उनकी टोली वाले यही मौत से ज़िंदगी खरीदने का कारोबार अपनी अपनी तरह कर कमाल नहीं धमाल कर रहे हैं।
भारत देश खुद को खुद ही महान बतलाता है यहां लोग पैसा कमाने की खातिर अधिक की चाह में देश को छोड़ विदेश जाकर बसते हैं मगर वहां से देश को प्यार करने की बात सोशल मीडिया पर करते हैं। मुसीबत में देश के काम नहीं आते मगर जब विदेश में खुद मुसीबत में पड़ते हैं तब देश वापस आने की गुहार लगाते हैं। देशभक्त अपने देश में थोड़े से गुज़ारा चलाते हैं अपना देश आखिर अपना है बज़ुर्ग समझाते हैं। जाने किस ने समझाया है कि जब देशवासी आपदाग्रस्त हैं जनाब सरकार अपने लिए बीस हज़ार करोड़ खर्च कर नया आवास बनवा कर कीर्तिमान स्थापित कर सकता है अपनी आकांक्षा पूरी करने को।
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