कांच के टुकड़ों पे चलना ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
कहां से बात शुरू करूं यही मुश्किल है , राजेश रेड्डी जी का शेर याद आता है " न बोलूं सच तो कैसा आईना मैं , जो बोलूं सच तो चकनाचूर हो जाऊं। ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊं , बस अपने आप को मंज़ूर हो जाऊं। नसीहत कर रही है अक्ल कब से , कि मैं दीवानगी से दूर हो जाऊं।"
सच लिखना तलवार की धार पर चलना है और सच शासक ताकवर धनवान सत्ताधारी लोगों को हमेशा दुश्मन लगता है। सच लिखने की पहली शर्त है अपने बेगाने की नहीं खुद अपनी भी वास्तविकता को साहस से उजागर करना। जो लेखक टीवी मीडिया वाले सबकी सूरत दिखाते हैं खुद अपनी महिमा अपने मुंह से सुनाते हैं सच से हमेशा नज़रें चुराते हैं। आज आपको कहानी नहीं सच बताते हैं सच लिखने की कीमत हर दिन चुकाते हैं। आंख से आंख मिलाकर झूठ को झूठ बताना मतलब होता है किसी पत्थर की दीवार से सर टकराना मगर हम ने इक बार नहीं सौ बार किया है। सच को जान से बढ़कर है चाहा ये गुनाह बार बार किया है अपने क़ातिल से भी हमने सिर्फ प्यार किया है गुनाह यही मैंने मेरे यार किया है। आज कितनी घटनाएं भूली हुई यादों की तरह फ्लैशबैक की तरह नज़रों के सामने चल रही हैं। ये जुर्म बेलज्ज़त है अर्थात ऐसा अपराध जिस में कोई लुत्फ़ कोई आनंद कोई मज़ा नहीं है सज़ा ही सज़ा है क़ज़ा ही क़ज़ा है।
पीछे जाने से पहले अभी किसी की कही बात से शुरू करते हैं दोस्त ने कहा आपकी इज्ज़त करते हैं। सही कहते हैं सभी जब तक सच उनके बारे में नहीं किसी और को लेकर हो अच्छा लगता है बहुत बार हुआ है। मैंने कभी किसी से अनुचित को उचित कहने को नहीं कहा ये मुझसे होगा भी नहीं फिर जाने क्यों शासक लोग अफ़्सर नेता यही कहते रहे हैं कि आपकी बड़ी इज्ज़त करते हैं अपने लिहाज़ नहीं किया लिखते हुए हमारे बारे में। सच कभी किसी को मीठा लगता नहीं है सच सुनना ही नहीं चाहते लोग सच का आदर करना जानते तो झूठ पर इतराते नहीं। गुरुनानक जी जेल में भी शासक को सामने कहते हैं बड़ा ज़ालिम है तू सच की डगर चलने वाले जान हथेली पर रख कर चलते हैं। इज्ज़त तभी इज्ज़त है जब लोग आपकी सच्चाई को जानकर आदर करें अन्यथा दिखावे की इज्ज़त धोखा होता है जैसे लोग नेताओं अधिकारी वर्ग और दौलतमंद की करते हैं मतलब की खातिर। अपनी इक ग़ज़ल पेश करता हूं।
वो पहन कर कफ़न निकलते हैं
शख्स जो सच की राह चलते हैं।
राहे मंज़िल में उनको होश कहाँ
खार चुभते हैं , पांव जलते हैं।
गुज़रे बाज़ार से वो बेचारे
जेबें खाली हैं , दिल मचलते हैं।
जानते हैं वो खुद से बढ़ के उन्हें
कह के नादाँ उन्हें जो चलते हैं।
जान रखते हैं वो हथेली पर
मौत क़दमों तले कुचलते हैं।
कीमत उनकी लगाओगे कैसे
लाख लालच दो कब फिसलते हैं।
टालते हैं हसीं में वो उनको
ज़ख्म जो उनके दिल में पलते हैं।
शख्स जो सच की राह चलते हैं।
राहे मंज़िल में उनको होश कहाँ
खार चुभते हैं , पांव जलते हैं।
गुज़रे बाज़ार से वो बेचारे
जेबें खाली हैं , दिल मचलते हैं।
जानते हैं वो खुद से बढ़ के उन्हें
कह के नादाँ उन्हें जो चलते हैं।
जान रखते हैं वो हथेली पर
मौत क़दमों तले कुचलते हैं।
कीमत उनकी लगाओगे कैसे
लाख लालच दो कब फिसलते हैं।
टालते हैं हसीं में वो उनको
ज़ख्म जो उनके दिल में पलते हैं।
नाम नहीं लेना चाहता मगर इक पुलिस के बड़े अधिकारी से जान पहचान हुई तीस साल पुरानी बात है अक्सर सुबह ही अख़बार में मेरी रचना पढ़कर वाह डॉक्टर साहब लाजवाब कलम है आपकी ये शब्द सुनाई देते थे। इक दिन अख़बार की मैगज़ीन के पहले पन्ने पर छपी रचना पढ़कर उनको खराब लगा पुलिस को लेकर उनको मेरे शब्द नापसंद आये थे जबकि वही शब्द अधिकारी नेता डॉक्टर सभी के लिए मीडियम बनाकर उपयोग किया गया था कटाक्ष में लेकिन उनको उम्मीद नहीं थी कि उनकी पहचान दोस्ती का ध्यान नहीं रखेगा ये व्यंग्यकार जिसकी तारीफ करते हैं जनाब। नहीं ये कीमत दोस्ती की महंगी है चुकाना खुद से बेईमानी होगा। ऐसे इक उपयुक्त महोदय तबादला होने पर साहित्य की हमारी संस्था को चेक देने लगे अपने को सम्मानित करवाने को तो नहीं स्वीकार की कभी राशि किसी नेता अधिकारी या धनवान से मुख्य अतिथि बनाकर। जैसा सभी करते हैं मैंने नहीं किया और बदले में किसी से गलत काम में सहयोग करने को नहीं कहा। ये अजीब खेदजनक बात है कि लोग आपकी उचित बात का समर्थन उचित होने के कारण करते हैं मगर उसको भी उपकार मानते हैं।
कितनी अख़बार मैगज़ीन वाले संपादक उनकी वास्तविकता को लेकर लिखने पर नाराज़ होते रहे हैं। आपको छपवानी है रचनाएं तो उनको सलाम करना होगा और देखता हूं लोग फेसबुक पर धन्यवाद करने की बात लिखते हैं रचना स्वीकृत करने के लिए सम्मानित करने के लिए। होना ये चाहिए की संपादक लिखने वाले को अच्छी रचना भेजने को धन्यवाद देने की बात कहे क्योंकि अभी तक उचित मेहनताना तो अख़बार मगज़ीन वाले देते नहीं , नहीं देने को बहाने बहुत हैं। उनको भी उनकी वास्तविकता बताना नराज़ करना है जबकि ये बाकी सभी खर्चे छपाई कागज़ दफ्तर और कर्मचारी का वेतन देते हैं सिर्फ लेखक को ही गुज़ारे लायक पैसा देना उनको शोषण नहीं लगता है। साहित्य के साथ इस से अधिक अनुचित कुछ हो नहीं सकता है। मैंने साहित्य अकादमी के निदेशक की अनुचित बात मंज़ूर नहीं की उनकी कार्यशैली का हिस्सा बनने से मना कर दिया कवि सम्मलेन आयोजित करने में अकादमी के धन का बंदरबांट करना। सरकारी सम्मानों को लेकर मैंने लिखी कविता साहित्य अकादमी को भेजी जो उसी अंक में छपी जिस में इक और दोस्त को ईनाम मिलने की खबर छपी थी आमने-सामने पेज पर। ये मुझे नहीं पता था कि ऐसा भी हो सकता है और कई दोस्तों ने फोन किया मुझे भी उस दोस्त को भी तमाशा देखने को लेकिन अच्छा है दोस्त पहले से जानता था मेरी कविता और सोच क्या है। मैं जो मानता हूं उसे लिखते हुए संकोच नहीं करता न घबराता हूं कि कोई बुरा मानेगा। लिखना मैंने ईबादत की तरह किया है काम समाज जनहित को अपने लाभ नुकसान या पैसे शोहरत से नहीं आंका कभी भी। सच लिखने बोलने से दोस्त दोस्त नहीं रहते तो मंज़ूर है सच की ये कीमत चुकानी पड़ती है। लिखना हिंदी में अभी भी घर फूंक तमाशा देखने जैसा है छापने वाले मालामाल और लिखने वाला बदहाल ये अजब कमाल है। वक़्त की उल्टी सीधी चाल है कुछ लोगों की अपनी सुर ताल है। आखिर में जगजीत सिंह जी की गाई ग़ज़ल सब कहती है लिखने को बहुत बाकी है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें