किसी मेहरबां की इनायत के लिये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
किसी मेहरबां की इनायत के लियेहमें अब है जीना मुहब्बत के लिये।
दिखाओ खुदा का हमें कोई निशां
चलें साथ मिलके इबादत के लिये।
सुनाओ हमें आज अपना हाले-दिल
तेरे पास आए हैं उल्फत के लिये।
नहीं मिल सका आज उनसे कुछ हमें
तराशे थे बुत जो अकीदत के लिये।
नहीं पास कोई न कोई दूर है
यहां सब खड़े हैं तिजारत के लिये।
किसी को नहीं पार करते नाखुदा
कहां आ गए लोग राहत के लिये।
यहां क्या मिला है किसे कर के वफ़ा
कहां आ गए आप चाहत के लिये।
नहीं काम कोई भी "तनहा" का यहां
जहां ये बना है सियासत के लिये।
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