जनवरी 10, 2013

POST : 279 रुलाता सब ज़माना है , हमें रोना नहीं आता ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

    रुलाता सब ज़माना है , हमें रोना नहीं आता ( ग़ज़ल ) 

                        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

रुलाता सब ज़माना है , हमें रोना नहीं आता
हमें अश्कों से अपने दर्द सब धोना नहीं आता ।

सिखा जाना कभी आकर दिलों को जीतते कैसे
हमें सब और है आता , यही टोना नहीं आता ।

बढ़ाते जा रहे हैं सब कतारें खुद गुनाहों की
न बांधो पाप की गठड़ी अगर ढोना नहीं आता ।

यहां पर आंधियां चलती बहुत ज़ालिम ज़माने की
तुम्हें लेकिन संभल कर खुद खड़े होना नहीं आता ।

सभी कांटे हमें देना , उन्हीं को फूल दे देना
ख़ुशी का बीज जीवन में , जिन्हें बोना नहीं आता ।

हमेशा मांगते रहते , मगर कैसे मिले कुछ भी
जिन्हें पाना तो आता है , मगर खोना नहीं आता ।

चले आये हैं महफ़िल में , बिताने रात इक अपनी
अकेले रात भर "तनहा" हमें सोना नहीं आता । 
 

 

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