रुलाता सब ज़माना है , हमें रोना नहीं आता ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
रुलाता सब ज़माना है , हमें रोना नहीं आताहमें अश्कों से अपने दर्द सब धोना नहीं आता ।
सिखा जाना कभी आकर दिलों को जीतते कैसे
हमें सब और है आता , यही टोना नहीं आता ।
बढ़ाते जा रहे हैं सब कतारें खुद गुनाहों की
न बांधो पाप की गठड़ी अगर ढोना नहीं आता ।
यहां पर आंधियां चलती बहुत ज़ालिम ज़माने की
तुम्हें लेकिन संभल कर खुद खड़े होना नहीं आता ।
सभी कांटे हमें देना , उन्हीं को फूल दे देना
ख़ुशी का बीज जीवन में , जिन्हें बोना नहीं आता ।
हमेशा मांगते रहते , मगर कैसे मिले कुछ भी
जिन्हें पाना तो आता है , मगर खोना नहीं आता ।
चले आये हैं महफ़िल में , बिताने रात इक अपनी
अकेले रात भर "तनहा" हमें सोना नहीं आता ।
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