वो भी जीता रहा ज़िंदगी के बिना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
वो भी जीता रहा ज़िंदगी के बिनाहम भी जलते रहे रौशनी के बिना।
उनसे हम बात करते भला और क्या
कुछ भी आता नहीं आशिकी के बिना।
बात महफ़िल में होने लगी होश की
कुछ न आया मज़ा बेखुदी के बिना।
जब कभी हम मिलें , उस हसीं रात में
आ भी जाना वहां , तुम घड़ी के बिना।
एक दिन सामने दे दिखाई खुदा
यूं ही "तनहा" मगर बंदगी के बिना।
1 टिप्पणी:
बहुत खूब...
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