इन अंधेरों को मिटाता कोई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
अब अंधेरों को मिटाता कोईइन चिरागों को जलाता कोई।
राह से भटके मुसाफिर ठहरे
रास्ता किसको बताता कोई।
कारवां कोई नज़र आ जाता
हमको मंज़िल से मिलाता कोई।
शब गुज़र जाती जिसे सुन कर के
इक कहानी तो सुनाता कोई।
की खता हमने , कभी तुमने की
अब गिले शिकवे भुलाता कोई।
क्यों झुका आंखें वहां जाते हम
दाग़ अपने जो मिटाता कोई।
मौत से "तनहा" कहां डरते हैं
ज़हर आकर खुद पिलाता कोई।
राह से भटके मुसाफिर ठहरे
रास्ता किसको बताता कोई।
कारवां कोई नज़र आ जाता
हमको मंज़िल से मिलाता कोई।
शब गुज़र जाती जिसे सुन कर के
इक कहानी तो सुनाता कोई।
की खता हमने , कभी तुमने की
अब गिले शिकवे भुलाता कोई।
क्यों झुका आंखें वहां जाते हम
दाग़ अपने जो मिटाता कोई।
मौत से "तनहा" कहां डरते हैं
ज़हर आकर खुद पिलाता कोई।
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