जिये जा रहे हैं इसी इक यकीं पर ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
जिये जा रहे हैं इसी इक यकीं परहमारा भी इक दोस्त होगा कहीं पर।
यही काम करता रहा है ज़माना
किसी को उठा कर गिराना ज़मीं पर।
गिरे फूल आंधी में जिन डालियों से
नये फूल आने लगे फिर वहीं पर।
वो खुद रोज़ मिलने को आता रहा है
बुलाते रहे कल वो आया नहीं पर।
किसी ने लगाया है काला जो टीका
लगा खूबसूरत बहुत उस जबीं पर।
भरोसे का मतलब नहीं जानते जो
सभी को रहा है यकीं क्यों उन्हीं पर।
रखा था बचाकर बहुत देर "तनहा"
मगर आज दिल आ गया इक हसीं पर।
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