दिसंबर 06, 2012

दर्द को गुज़रे ज़माने हैं बहुत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 दर्द को गुज़रे ज़माने हैं बहुत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दर्द को गुज़रे ज़माने हैं बहुत
बेमुरव्वत दोस्ताने हैं बहुत।

हो गये दो जिस्म यूं तो एक जां
फासले अब भी मिटाने हैं बहुत।

दब गये ज़ख्मों की सौगातों से हम
और भी अहसां उठाने हैं बहुत।

मिल न पाए ज़िंदगी के काफ़िये
शेर लिख - लिख कर मिटाने हैं बहुत।

हादिसे हैं फिर वही चारों तरफ 
हां , मगर किस्से पुराने हैं बहुत। 
 
हम खिज़ाओं का गिला करते नहीं 
फूल गुलशन में खिलाने हैं बहुत। 
 
कह रहे , हमको बुलाओ तो सही 
पर , न आने को बहाने हैं बहुत। 
 
ज़िंदगी ठहरी नहीं अपनी कहीं 
बेठिकानों के , ठिकाने हैं बहुत। 
 
वक़्त की रफ़्तार से "तनहा" चलो 
फिर , सभी मौसम सुहाने हैं बहुत। 

अब आप मेरी यही ग़ज़ल मेरे यूट्यूब चैनल अंदाज़-ए -ग़ज़ल पर भी सुनकर आनंद ले सकते हैं। 



 
 
 

 

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