दर्द को गुज़रे ज़माने हैं बहुत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
दर्द को गुज़रे ज़माने हैं बहुत
बेमुरव्वत दोस्ताने हैं बहुत ।
हो गये दो जिस्म यूं तो एक जां
फासले अब भी मिटाने हैं बहुत ।
दब गये ज़ख्मों की सौगातों से हम
और भी अहसां उठाने हैं बहुत ।
मिल न पाए ज़िंदगी के काफ़िये
शेर लिख - लिख कर मिटाने हैं बहुत ।
बेमुरव्वत दोस्ताने हैं बहुत ।
हो गये दो जिस्म यूं तो एक जां
फासले अब भी मिटाने हैं बहुत ।
दब गये ज़ख्मों की सौगातों से हम
और भी अहसां उठाने हैं बहुत ।
मिल न पाए ज़िंदगी के काफ़िये
शेर लिख - लिख कर मिटाने हैं बहुत ।
हादिसे हैं फिर वही चारों तरफ
हां , मगर किस्से पुराने हैं बहुत ।
हम खिज़ाओं का गिला करते नहीं
फूल गुलशन में खिलाने हैं बहुत ।
कह रहे , हमको बुलाओ तो सही
पर , न आने को बहाने हैं बहुत ।
ज़िंदगी ठहरी नहीं अपनी कहीं
बेठिकानों के , ठिकाने हैं बहुत ।
वक़्त की रफ़्तार से "तनहा" चलो
फिर , सभी मौसम सुहाने हैं बहुत।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें