कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कब से जाने बंद हूंएक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये ।
रोक लेता है हर बार मुझे
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे
इक सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये ।
मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको ।
कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।
देखता रहता हूं
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने
खुद अपनी ही कैद से ।
1 टिप्पणी:
Waahh
एक टिप्पणी भेजें