रहें खामोश जब तक सब कहा जाता शराफत है ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
रहें खामोश जब तक सब कहा जाता शराफत हैकभी जब बोलता कोई उसे कहते बगावत है।
खुदा देता नहीं क्योंकर सभी को सब बराबर है
कभी खुद देखता आकर किसे कितनी ज़रूरत है।
नहीं उनकी खता कोई हुई जिनको मुहब्बत है
कभी पूछो ज़माने से , उसे कैसी अदावत है।
यहीं सब छोड़ना होगा सभी कुछ जोड़ने वाले
न जाने नाम पर किसके लिखी तुमने वसीयत है।
मिटा डाला सभी ने खुद कभी का नाम तक उसका
मुहब्बत मांगते सब लोग कब मिलती मुहब्बत है।
किसे फुर्सत यहाँ सोचे वतन कैसे बचेगा अब
सभी कुछ है उन्हीं का अब सियासत बस तिजारत है।
हसीनों की अदाओं को कहाँ समझा कभी कोई
दिखाना भी छुपाना भी यही उनकी नज़ाकत है।
नहीं हिन्दू यहाँ कोई नहीं मुस्लिम यहाँ कोई
यहाँ होती धर्म के नाम पर केवल सियासत है।
पिलाते और पीते हैं बड़े ही शौक से "तनहा"
जिसे जीना वो कहते हैं वही शायद कयामत है।
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