नहीं कुछ पास खोने को रहा अब डर नहीं कोई ( ग़ज़ल )
लोक सेतिया "तनहा"
नहीं कुछ पास खोने को रहा अब डर नहीं कोईहै अपनी जेब तक खाली कहीं पर घर नहीं कोई ।
चले थे सोच कर कोई हमें उसका पता देगा
यहाँ पूछा वहां ढूँढा मिला दिलबर नहीं कोई ।
बताना हुस्न वालों को जिन्हें चाहत है सजने की
मुहब्बत से हसीं अब तक बना ज़ेवर नहीं कोई ।
ग़ज़ल की बात करते हैं ज़माने में कई लेकिन
हमें कहना सिखा देता मिला शायर नहीं कोई ।
हमें सब लोग कहते थे कभी हमको बुलाना तुम
ज़रूरत में पुकारा जब मिला आ कर नहीं कोई ।
कहीं मंदिर बना देखा कहीं मस्जिद बनी देखी
कहाँ इन्सान सब जाएँ कहीं पर दर नहीं कोई ।
वहां करवट बदलते रात भर महलों में कुछ "तनहा"
यहाँ कुछ लोग सोये हैं जहाँ बिस्तर नहीं कोई ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें