औरत ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
तुमने देखा है
मेरी आँखों को
मेरे होटों को
मेरी जुल्फों को ,
नज़र आती है तुम्हें
ख़ूबसूरती नज़ाकत और कशिश
मेरे जिस्म के अंग अंग में ।
तुमने देखा है
केवल बदन मेरा
प्यास बुझाने को
अपनी हवस की ,
बाँट दिया है तुमने
टुकड़ों में मुझे
और उसे दे रहे हो
अपनी चाहत का नाम ।
तुमने देखा ही नहीं
कभी उस शख्स को
कभी उस शख्स को
एक इन्सान है जो
तुम्हारी ही तरह ,
जीवन का हर इक
एहसास लिये ।
जो नहीं है केवल एक जिस्म
औरत है तो क्या ।
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