साया ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
पी लेता हूंयूं तो अक्सर
ज़िंदगी का
मैं ज़हर ।
जाने क्यों
फिर भी कभी
भर आती हैं आंखें
और घुटने
लगता है दम ।
रोकने से
तब रुकते नहीं
आंखों से आंसू
तनहाई में अक्सर ।
मन करता है
जा कर पास तुम्हारे
चुप चाप बैठ कर
जी भर के रो लेने को ।
सोचता हूं
मैं कभी कभी
अकेले में ये भी
जिसकी तलाश है मुझे
तुम वही हो कि नहीं ।
भीगी पलकों के
हम दोनों के शायद
इस नाते को कभी
मैं नहीं कोई भी
नाम दे पाया ।
तुम्हें भी
याद आता है कभी
छत के कोने में देर रात तक
राह तकता हुआ
गुमसुम सा
खड़ा कोई साया ।
1 टिप्पणी:
Bahut khub sir
एक टिप्पणी भेजें