चुभन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
धरती नेअंकुरित किया
बड़े प्यार से उसे
किया प्रस्फुटित
अपना सीना चीर कर
बन गया धीरे धीरे
हरा भरा पौधा
उस नन्हें बीज से ।
फसल पकने पर
ले गया काट कर
बन कर स्वामी
डाला था जिसने बीज
धरती में
और धरती को मिलीं
मात्र कुछ जडें
चुभती हुई सी ।
अपनी कोख में
हर संतान को
पाला माँ ने
मगर मिला उन्हें सदा
पिता का ही नाम
जो समझता रहा खुद को
परिवार का मुखिया
घर का मालिक ।
और हर माँ
सहती रही
कटी हुई जड़ों की
चुभन के दर्द को
जीवन पर्यन्त ।
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